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प्रवचनसार अनुशीलन तो बड़े लोग बीच में पड़कर समय पर लग्न करा देते हैं। हमें भी प्रतिष्ठित अर्थात् इज्जतवालों को साथ में लाना चाहिए। वैसे ही प्रभु ! हमने भी स्वयंवर मंडप लगाया है। आत्मा में पूर्ण शुद्धता, शक्ति विद्यमान है। उसकी व्यक्तता पूर्ण हुई, वह मोक्ष है। मोक्षलक्ष्मी का साधन चारित्र है। जो चारित्र ग्रहण करता है; उसे मोक्षलक्ष्मी वरण किये बिना नहीं रहती।
हे भगवान ! मोक्षलक्ष्मी मुझे वरण करनेवाली है। हमें हमारा भरोसा है कि - मैं पूर्णदशा को पाऊँगा और मोक्ष प्राप्त करूँगा । हमने पंचपरमेष्ठियों को साथ में रखा है, इसलिए मोक्षलक्ष्मी जरूर वरण करेगी। इसप्रकार जिन्होंने मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त किया है और प्राप्त करनेवाले हैं, उन सभी को हाजिर रखा है। ____ मैं तो मोक्षलक्ष्मी को वरण करनेवाला हूँ। मेरे चारित्र के तेज की शोभा द्वारा मोक्षलक्ष्मी पीछे हटनेवाली नहीं है। ऐसे अप्रतिहत भाव का यहाँ वर्णन है। अनन्त सिद्ध और अर्हन्त आदि हाजिर हों और मोक्षलक्ष्मी नहीं मिले - ऐसा नहीं हो सकता। ___ जैसे मेहमानों को लेने जाते हैं और पधारो ! पधारो !! कहते हैं; उनमें भी यदि चक्रवर्ती आए तो उसे राजा लेने जाते हैं और पधारो ! पधारो !! कहकर सन्मान करते हैं।
ऐसे ही भगवती जिनदीक्षारूप चारित्र आराधना के स्वयंवर मण्डप में हे तीर्थंकर भगवान पंचपरमेष्ठी पधारो ! पधारो !! जितने अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु जो वर्तमान में वर्तते हैं और पूर्व में हो गए हैं; उन सभी को कालगोचर करते हैं। जैसे विवाह में कोई सगा सम्बन्धी नहीं आ सके तो उसका नाम लेकर याद करते हैं, किन्तु उनकी कमी नहीं
आने देते; वैसे ही बीस विरहमान तीर्थंकर भगवान यहाँ उपस्थित नहीं हैं; फिर श्री कामका तथा अन्य का नाम लेकर आदर करके सभी को उपस्थित २. वही, पृष्ठ-२९-३०
गाथा-१-५ करते हैं।”
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि मंगलाचरण के रूप में पंचपरमेष्ठियों का भक्तिभावपूर्वक स्मरण करके आचार्य कुन्दकुन्ददेव मुक्तिलक्ष्मी की प्राप्ति के लिए साम्यभाव धारण करने का अप्रतिहत पुरुषार्थ करते हैं।
आचार्य अमृतचन्द्र कहते हैं कि इसप्रकार परमपूज्य पंच परमेष्ठियों को द्रव्य-भाव से नमस्कार करके आचार्य कुन्दकुन्द स्वयं उक्त शुभभाव की भूमिका को पारकर शुद्धोपयोगरूप साम्यभाव को प्राप्त होते हैं।
काया से प्रणाम करना और वाणी से 'वंदना' आदि शब्दों का सम्मानपूर्वक उच्चारण करना द्रव्यनमस्कार है; क्योंकि इसमें द्वैत विद्यमान है। जिसे नमस्कार किया जा रहा है, वह भिन्न है और जो नमस्कार कर रहा है, वह भिन्न है। इसप्रकार के द्वैतपूर्वक होनेवाले नमस्कार को द्रव्यनमस्कार या व्यवहारनमस्कार कहते हैं।
स्व-पर के विकल्पों के विलयपूर्वक प्रवर्तमान अद्वैत के द्वारा निश्चय सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप परिणमन करना ही भावनमस्कार है।
द्वैतनमस्कार और अद्वैतनमस्कार का स्वरूपस्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय तथा सर्वसाधुओं को प्रणाम तथा वन्दनोच्चार द्वारा प्रवर्तते द्वैत द्वारा मैं वन्दन करनेवाला हूँ और पंचपरमेष्ठी वन्दन करने योग्य हैं - इसप्रकार प्रणाम और वचन द्वारा द्वैत (दो पना) वर्तता है। पंचपरमेष्ठी व्यवहार से ध्येय हैं और ध्यान करनेवाला स्वयं है। स्व की ओर झुकने पर ऐसा भेद मिट जाता है। मैं वन्दन करनेवाला हैं और पंचपरमेष्ठी वंद्य हैं - ऐसा भेद मिट गया है।
पंचपरमेष्ठी के प्रति अत्यन्त आराध्य भाव के कारण आराध्य ऐसे पंचपरमेष्ठी भगवंतों को और आराधक ऐसे स्वयं के भेद व्यापार