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प्रवचनसार अनुशीलन हजार मिले तो लाख की इच्छा करता है, इसप्रकार विषयतृष्णा करता जाता है।
यदि जोंक को तृष्णा न हो तो वह दूषित रक्त को क्यों चूसे ? वैसे ही अज्ञानी को यदि तृष्णा न हो तो उसकी विषयों में प्रवृत्ति दिखाई न दे, परन्तु वह तो दिखाई देती है; इसलिए पुण्य तृष्णा की उत्पत्ति का घर है
और आत्मा आनन्दकन्द है, वह शान्ति का घर है। पुण्य तृष्णा के रहने का स्थान है; इसप्रकार अविरोधपने सिद्ध होता है।
पुण्य परिणाम धर्म का साधन नहीं; किन्तु दु:ख के बीजरूप तृष्णा का ही साधन है। पुण्य के कारण वैभव मिले, वह क्लेश का कारण है, आत्मा के सुख का कारण नहीं।"
इन गाथाओं और उनकी टीका में गंदे खून पीनेवाली जोंक का उदाहरण देकर यह समझाया गया है कि पंचेन्द्रियों को निरन्तर भोगनेवाले इन्द्र और चक्रवर्ती भी दुखी ही हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि यद्यपि इस जगत में पुण्य की सत्ता है; किन्तु पुण्यवाले भी सुखी नहीं हैं। वस्तुत: बात यह है कि सच्चा सुख तो आत्मा में ही है और आत्मा के आश्रय से ही प्राप्त होता है। आत्मा का आश्रयरूप धर्म शुद्धपरिणति और शुद्धोपयोगरूप है; शुभभावरूप नहीं। ___शुभभाव पुण्यबंध का कारण है और पुण्योदय से पंचेन्द्रियों के विषयों की उपलब्धि होती है। विषयों का भोग, दुखरूप होने से सुखी से दिखनेवाले भोगीजन वस्तुत: दुखी ही हैं। यह बात ही इन गाथाओं में स्पष्ट की गई है।
जिनके पाप का उदय है; वे दुखी हैं - यह तो सारा जगत कहता है; किन्तु यहाँ तो यह कहा जा रहा है कि जिनके पुण्य का उदय विद्यमान है; वे भी सुखी नहीं हैं, दुखी ही हैं; क्योंकि वे भी विषयों में रमे हैं। दुख के बिना विषयों में रमणता संभव नहीं है। १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१५३ २. वही, पृष्ठ-१५४ ३. वही, पृष्ठ-१५५
प्रवचनसार गाथा-७५ विगत गाथाओं में यह बताया गया है कि यद्यपि पुण्यभाव विद्यमान हैं; तथापि वे तृष्णा के ही उत्पादक हैं। ____ हम स्पष्ट अनुभव करते हैं कि कभी-कभी तो हमें बहुत प्रयत्न करने पर भी सफलता नहीं मिलती और कभी-कभी अत्यल्प प्रयत्न से या बिना प्रयत्न के ही सफलता प्राप्त हो जाती है; इसकारण यह बात अत्यन्त स्पष्ट है कि जगत में पुण्यतत्त्व की भी सत्ता है; क्योंकि अनायास सफलता मिलने का कारण पुण्योदय ही है।
इसीप्रकार यह बात भी अत्यन्त स्पष्ट है कि पुण्योदय से प्राप्त होनेवाली भोगसामग्री को देखकर या प्राप्त कर विषय-वासना ही उत्पन्न होती है; भोग के भाव ही भड़कते हैं। ____ अत: अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि पुण्य में दुःखों के बीज की विजय है। तात्पर्य यह है कि पुण्य में तृष्णारूपी बीज दुःखरूप वृक्ष की वृद्धि को प्राप्त होता है।
गाथा मूलत: इसप्रकार है - तेपुण उदिण्णतण्हा दुहिदा तण्हाहिं विसयसोक्खाणि। इच्छंति अणुभवंति य आमरणं दुक्खसंतत्ता ।।५।।
(हरिगीत) अरे जिनकी उदित तृष्णा दुःख से संतप्त वे।
हैं दुखी फिर भी आमरण वे विषयसुख ही चाहते ।।७५।। जिनकी तृष्णा उदित है; वे जीव तृष्णाओं के द्वारा दुःखी होते हुए मरणपर्यन्त विषयसुखों को चाहते हैं और दुःखों से संतप्त होते हुए, दुखदाह को सहन न कर पाने से उन्हें भोगते हैं।
इन गाथाओं के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं