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________________ ३०४ प्रवचनसार अनुशीलन जो उक्त व्यक्ति का निगल जाने को आतुर है और अनेक अन्य सर्प भी उसे डसने को तैयार हैं। मृत्यु के मुख में पड़े हुए उक्त पुरुष को उक्त अनेक दुःखों के बीच मात्र मधुविन्दु को चाटने के समान ही सुख है। उक्त परिस्थितियों में फंसे हुए मरणोन्मुख उक्त पुरुष पर करुणा करके कोई देवता उसे बचाने के लिए हाथ बढ़ाता है और आग्रह करता है कि तुम मेरा हाथ कसकर पकड़ लो, मैं तुम्हें अभी इस महासंकट से बचा लेता हूँ; परन्तु वह अभागा पुरुष कहता है कि इस मधुर मधु की एक बूँद और चाट लूँ । इसप्रकार वह एक-एक बूँद मधु के लोभ में तबतक वहीं लटका रहता है कि जबतक वह वृक्ष उखड़ नहीं जाता, उसकी डालियाँ टूट नहीं जातीं, वह पुरुष गिरकर विकराल अजगर के मुख में समा नहीं जाता, साँपों द्वारा डसा नहीं जाता; यहाँ तक कि महामृत्यु को प्राप्त नहीं हो जाता । मधुबिन्दु के समान सांसारिक सुखों के लोभ में यह मनुष्य संसाररूपी भयंकर वन में मिथ्यात्वरूपी कुमार्ग में भटकता हुआ मृत्युरूपी हाथी के भय से शरीररूपी अंधे कुएँ में गिर गया है। जिस आयुकर्मरूप वृक्ष की जड़ शुक्ल और कृष्ण पक्षरूपी चूहे काट रहे हैं- ऐसी आयुकर्मरूपी वृक्ष की शाखा पर लटक गया है। शरीररूपी अंधे कुएँ के नीचे भाग में सशरीर निगल जाने को तैयार नरकरूपी अजगर और डस जाने को तैयार कषायोंरूपी सर्प हैं । मृत्युरूपी हाथी वृक्ष और उसकी शाखाओं को नष्ट करने के लिए जोर से झकझोर रहा है; जिससे जीवनांत होने का खतरा बढ़ गया है । फिर भी वह मनुष्य विषय - सुखरूपी मधुबिन्दु के स्वाद में सुख मानता हुआ उसे चाट रहा है, विषयों को भोग रहा है। सद्गुरुरूपी देवता उसे गाथा - ७१ ३०५ बचाने के लिए हाथ बढ़ाते हैं, पर वह विषयसुखरूपी मधु के लोभ में फंसकर वहाँ से निकलना ही नहीं चाहता। सांसारिक सुख की यही स्थिति है; मोक्षसुख इससे विलक्षण है, विपरीत है। कविवर वृन्दावनदासजी इस गाथा के भाव को एक छन्द में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं. - ( मत्तगयन्द ) देवनि के अनिमादिक रिद्धि की वृद्धि अनेक प्रकार कही है। भी अतिंद्रियरूप अनाकुल ताहि सुभाविक सौख्य नहीं है ।। परमागममाहिं कही गुरु और सुनो जो तहाँ नित ही है । देहविथाकरि भोग मनोगनि माहिं रमै समता न लही है || ३ || यद्यपि देवों के आणिमादि अनेक ऋद्धियाँ होती हैं; तथापि उनके अतीन्द्रिय अनाकुल स्वाभाविक सुख नहीं होता । यद्यपि गुरुओं ने परमागम में यह सब कहा है; तथापि एक बात और सुनो कि वहाँ देवगति में नित्य ही देहजन्य पीड़ा के कारण मनोग्य भोगों में रमना होता है, पर समताभाव की प्राप्ति नहीं होती । स्वामीजी उक्त गाथा और उनकी टीकाओं का भाव इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - “इन्द्रियसुख का आधार तीन गतियाँ कही गई हैं। उनमें प्रधान देवगति है । तिर्यंच और मनुष्य को गौण सुख है। इकतीस सागर की स्थितिवाले देवों को भी आत्मा का सुख नहीं है, अपितु उनको स्वाभाविक अर्थात् प्रत्यक्ष दुःख है, वहाँ आत्मा का सुख नहीं; क्योंकि ज्ञानतत्त्व के साधन से ही सुख मिलता है, शुभराग से सुख नहीं मिलता । सम्यग्दृष्टि जीव सर्वार्थसिद्धि में जाए; वहाँ भी पूर्ण आनन्द नहीं है,
SR No.008368
Book TitlePravachansara Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherRavindra Patni Family Charitable Trust Mumbai
Publication Year2005
Total Pages227
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size726 KB
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