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गाथा-६७-६८
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प्रवचनसार अनुशीलन संसारदशा में अमुक विषय और सिद्धदशा में लोकालोक के विषय दुख-सुख के कारण नहीं हैं; अपितु जीव स्वयमेव सुखरूप परिणमित होता है। आत्मा के ज्ञान में से केवलज्ञान प्रगट हुआ, उसमें लोकालोक जानने में आता है, किन्तु लोकालोक सुख का कारण नहीं है; इसीतरह निचली दशा में भी विषय क्या करे ? विषय कहो अथवा निमित्त कहो एक ही बात है। बाहर की वस्तुएँ क्या करें?
संयोग दुख नहीं है, इसलिए संयोग को दूर करने जाए तो दु:ख नहीं मिटेगा। इसके विपरीत संयोग रहित आत्मा ज्ञानस्वभावी है - ऐसा समझे तो दु:ख मिटे।
जीव विकारीदशा करे तो दुःखस्वरूप और अविकारी दशा करे तो अपने से ही सुखरूप परिणमित होता है। उसे स्पर्श, रस, गंध, वर्ण के विषय अकिंचित्कर हैं अर्थात् कुछ नहीं करते।
जिसप्रकार आकाश में सूर्य अपने आप ही तेज और उष्ण है, उसे किसी दूसरी अग्नि की जरूरत नहीं है; उसीप्रकार लोक में पूर्ण परमात्मा जिनको पूर्ण आनन्द प्रगट हुआ है, वे स्वयं ज्ञान, सुख और देव हैं । आत्मा में ज्ञान और आनन्दस्वभाव विद्यमान है, वे स्वयं ही देव है। ___पर-पदार्थ को परपने प्रकाशित करने की पूर्ण ताकत है, किन्तु पर को करने की आत्मा की ताकत नहीं है। आत्मा जगत को जाने; किन्तु आत्मा के कारण शरीर चलता है अथवा वाणी निकलती है - ऐसी ताकत आत्मा में नहीं है। अज्ञानी इसके विपरीत मानता है; क्योंकि उसे ज्ञानतत्त्व की खबर नहीं है।'
इसप्रकार इन गाथाओं में यही कहा गया है कि जिसप्रकार बिल्ली को तिमिरनाशक दृष्टि प्राप्त होने से अंधकार में देखने के लिए दीपक की १. दिव्यध्वनिसार भाग-२, पृष्ठ-१२१ २. वही, पृष्ठ-१२२ ३. वही, पृष्ठ-१२४
४. वही, पृष्ठ-१३०
आवश्यकता नहीं है; उसीप्रकार सुखस्वभावी भगवान आत्मा को सुख प्राप्त करने के लिए पंचेन्द्रियों के विषयों की आवश्यकता नहीं।
जिसका स्वभाव ही ज्ञान और आनन्द हो, उसे ज्ञान और आनन्द प्राप्त करने के लिए पर के सहयोग की क्या आवश्यकता है ?
जिसप्रकार स्वभाव से उष्ण तेजवंत सूर्य को उष्ण व तेजवंत होने के लिए अग्नि की आवश्यकता नहीं है; उसीप्रकार स्वभाव से ज्ञानानन्द स्वभावी आत्मा को या सिद्ध भगवान को ज्ञानी और सुखी होने के लिए पर की रंचमात्र भी अपेक्षा नहीं है।
यद्यपि आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका टीका में सुखाधिकार यहीं समाप्त हो गया है; तथापि आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं के उपरान्त भी दो गाथायें प्राप्त होती हैं; जो तत्त्वप्रदीपिका में नहीं हैं। उक्त दोनों गाथाओं में क्रमशः अरिहंत और सिद्ध भगवान की स्तुति की गई है। इसप्रकार वे अधिकार के अन्त में होनेवाले मंगलाचरणरूप गाथायें ही हैं।
इसप्रकार की एक गाथा ज्ञानाधिकार के अन्त में भी प्राप्त होती है। जिसकी चर्चा यथास्थान की जा चुकी है। उक्त गाथा को ज्ञानाधिकार के अन्त में आनेवाला मंगलाचरण या फिर सुखाधिकार के आरंभ में आनेवाला मंगलाचरण भी कह सकते हैं।
इसीप्रकार इन गाथाओं को भी सुखाधिकार के अन्त में आनेवाला मंगलाचरण या शुभपरिणामाधिकार के आरंभ में आनेवाला मंगलाचरण कह सकते हैं। इन गाथाओं की संगति दोनों ओर से मिलती है; क्योंकि इनके पहले आनेवाली गाथा में भी सिद्धों की चर्चा है और शुभपरिणाम अधिकार की आरंभिक गाथाओं में भी देव-शास्त्र-गुरु की भक्ति की चर्चा की गई है।
एक गाथा शुद्धोपयोगाधिकार के मध्य में भी आई है। भाग्य से उसमें