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प्रवचनसार अनुशीलन भी व्यक्त कर दिया गया है कि सबका नामोल्लेखपूर्वक स्मरण संभव नहीं है। सदा विद्यमान बीस तीर्थंकरों की विद्यमानता को विशेष महत्त्व देते हुए यद्यपि उन्हें विशेषरूप से याद किया गया है; तथापि नामोल्लेख तो उनका भी असंभव ही था ।
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इसतरह हम देखते हैं कि मंगलाचरण की इन गाथाओं में न तो अतिसंक्षेप कथन है और न अतिविस्तार; अपितु विवेकपूर्वक मध्यम मार्ग अपनाया गया है।
प्रश्न- आचार्य कुन्दकुन्द के काल में तो वर्द्धमान भगवान आठों ही कर्मों का नाश कर चुके थे; फिर भी यहाँ उन्हें मात्र चार घाति कर्मों को धो डालनेवाला ही क्यों कहा है ?
उत्तर- जिस अवस्था का नाम वर्द्धमान है अथवा जिस अवस्था में उन्होंने धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया था; वह अवस्था अरहंत अवस्था ही थी और अरहंत अवस्था में मात्र चार घातिकर्मों का ही अभाव होता है। यही कारण है कि यहाँ उन्हें चार घातिया कर्मों को धो डालनेवाला कहा गया है।
ध्यान रहे यहाँ वर्द्धमान भगवान की तीर्थंकर पद में स्थित अरहंत अवस्था को ही स्मरण किया गया है, नमस्कार किया गया है; क्योंकि उन्होंने अरहंत अवस्था में ही वर्तमान धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया था और अभी उनका ही शासनकाल चल रहा है।
उक्त गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में आचार्य अमृतचन्द्र इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“यह स्वसंवेदनप्रत्यक्ष दर्शन - ज्ञानस्वरूप मैं; जो सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों और नरेन्द्रों से वंदित होने से तीन लोक के एक (एकमात्र, अनन्य, सर्वोत्कृष्ट) गुरु हैं; जिनमें घातिकर्मरूपी मल को धो डालने से जगत पर अनुग्रह करने में समर्थ अनंत शक्तिरूप परमेश्वरता है; जो तीर्थता के कारण
गाथा-१-५
योगियों को तारने में समर्थ हैं और धर्म के कर्ता होने से शुद्धस्वरूप परिणति के कर्ता हैं; उन परमभट्टारक, महादेवाधिदेव, परमेश्वर, परमपूज्य और जिनका नाम ग्रहण भी अच्छा है; ऐसे श्री वर्द्धमानदेव को प्रवर्तमानतीर्थ की नायकता के कारण प्रथम ही प्रणाम करता हूँ ।
उसके बाद विशुद्ध सत्तावाले होने से ताप (अन्तिम ताव) से उत्तीर्ण उत्तम स्वर्ण के समान शुद्धदर्शनज्ञानस्वभाव को प्राप्त शेष अतीत २३ तीर्थंकरों और सर्वसिद्धों को तथा ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार से युक्त होने से जिन्होंने परमशुद्धोपयोग भूमिका को प्राप्त किया है; ऐसे आचार्यों, उपाध्यायों और साधुओं इसप्रकार सभी श्रमणों को नमस्कार करता हूँ ।
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उसके बाद इन्हीं पंचपरमेष्ठियों को अर्थात् परमेष्ठी पर्याय में व्याप्त होनेवाले सभी को, वर्तमान में इस क्षेत्र में उत्पन्न तीर्थंकरों का अभाव और महाविदेह क्षेत्र में उनका सद्भाव होने से मनुष्यक्षेत्र (ढाई द्वीप) में प्रवर्तमान वर्तमान काल गोचर तीर्थनायकों सहित सभी परमेष्ठियों को वर्तमान के समान विद्यमान मानकर ही समुदायरूप से एकसाथ और व्यक्तिगतरूप से प्रत्येक की अलग-अलग संभावना करता हूँ, आराधना करता हूँ, सम्मान करता हूँ ।
प्रश्न – किस प्रकार संभावना करता हूँ ?
उत्तर - मोक्षलक्ष्मी के स्वयंवर समान परम निर्ग्रन्थता की दीक्षा के उत्सव के योग्य मंगलाचरणभूत कृतिकर्मशास्त्रोपदिष्ट वन्दनोच्चार के द्वारा संभावना करता हूँ ।
इसप्रकार अरहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और सर्व साधुओं को प्रणाम और वन्दनोच्चार से प्रवर्तमान द्वैत के द्वारा तथा भाव्य-भावकभाव से बढ़े हुए अत्यन्त गाढ़ इतरेतर मिलन के कारण समस्त स्व- पर का विभाग विलीन हो जाने से प्रवर्तमान अद्वैत के द्वारा नमस्कार करके उन्हीं