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प्रवचनसार अनुशीलन निमित्तभूत परद्रव्यरूप इन्द्रियाँ, मन, परोपदेश, उपलब्धि (ज्ञानावरणी कर्म का क्षयोपशम), संस्कार या प्रकाश आदि के द्वारा होनेवाला स्व-विषयभूत पदार्थों का ज्ञान पर के द्वारा होने से परोक्ष कहा जाता है और अंत:करण, इन्द्रियाँ, परोपदेश, उपलब्धि, संस्कार या प्रकाश आदि सभी परद्रव्यों की अपेक्षा रखे बिना एकमात्र आत्मस्वभाव को ही कारणरूप से ग्रहण करके सभी द्रव्य और उनकी सभी पर्यायों में एकसमय में ही व्याप्त होकर प्रवर्तमान ज्ञान केवल आत्मा के द्वारा ही उत्पन्न होने से प्रत्यक्ष कहा जाता है। यहाँ इस गाथा में यही अभिप्रेत है कि सहजसुख का साधनभूत यह महाप्रत्यक्षज्ञान (केवलज्ञान) ही उपादेय है । "
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यहाँ महाप्रत्यक्ष शब्द प्रयोग सकल प्रत्यक्ष अर्थात् सर्वदेश प्रत्यक्ष के अर्थ में ही किया गया है।
शास्त्रों में अवधिज्ञान और मन:पर्ययज्ञान को भी प्रत्यक्ष माना गया है; पर ये दोनों ज्ञान मात्र रूपी पदार्थ को ही जानते हैं, पुद्गल को ही जानते हैं, आत्मा को नहीं । अतः ये प्रत्यक्षज्ञान सहजसुख के साधन नहीं ।
पर के सहयोग बिना आत्मा सहित लोकालोक को जाननेवाला केवलज्ञान ही सहजसुख का साधन है। यह बताने के लिए ही यहाँ महाप्रत्यक्ष शब्द का प्रयोग किया गया है।
इन गाथाओं का भाव आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका टीका के अनुसार ही स्पष्ट करते हैं ।
इन गाथाओं के भाव को कविवर वृन्दावनलालजी प्रवचनसार परमागम में तीन छन्दों में इसप्रकार व्यक्त करते हैं -
( सवैया )
जे परदरबमई हैं इन्द्री, ते पुद्गल के बने बनाव । चिदानंद चिद्रूप भूप को, यामें नाहीं कहूँ सुभाव ।। तिन करि जो जानत है आतम, सो किमि होय प्रतच्छ लखाव ।
गाथा - ५७-५८
पराधीन तातैं परोच्छ यह, इन्द्रीजनित ज्ञान ठहराव । ।२०।। जो परद्रव्यरूपी इन्द्रियाँ हैं, वे सब पुद्गल की रचना हैं। उनमें चैतन्य राजा का कुछ भी स्वभाव नहीं है। उनके निमित्त से आत्मा को जो जानकारी होती है; वह प्रत्यक्ष किसप्रकार हो सकती है ? क्योंकि वह इन्द्रियजनित ज्ञान पराधीन होने से परोक्ष ही ठहरता है।
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( मत्तगयन्द )
पुद्गलदर्वमई सब इन्द्रिय, तासु सुभाव सदा जड़ जानो । आतम को तिहुँकाल विषै, निते चेतनवंत सुभाव प्रमानो ।। तौ यह इन्द्रियज्ञान कहो, किहि भाँति प्रतच्छ कहाँ ठहरानो । तातैं परोच्छ तथा परतंत्र, सु इन्द्रियज्ञान भनौ भगवानो ।। २१ ।। सभी इन्द्रियाँ पुद्गलद्रव्यमय ही हैं; इसकारण उनका स्वभाव जड़ ही जानना चाहिए और आत्मा तो त्रिकाल चेतनस्वभावी ही है। ऐसी स्थिति में यह इन्द्रियज्ञान प्रत्यक्ष किस रूप में कहा जा सकता है ? यही कारण है कि भगवान ने इन्द्रियज्ञान को पराधीन और परोक्ष कहा है। ( मनहरण कवित्त )
पर के सहायतें जो वस्तु में उपजे ज्ञान,
सोई है परोच्छ तासु भेद सुनो कानतैं । जथा उपदेश वा छ्योपशम लाभ तथा,
पूर्व के अभ्यास वा प्रकाशादिक भानतैं ।। और जो अकेले निज ज्ञान ही तैं जानें जीव,
सोइ है प्रतच्छ ज्ञान साधित प्रमानतैं । जातैं यह पर की सहाय विन होत वृन्द,
अतिंद्रिय आनंद को कंद अमलानतैं ।। २२ ।। पर की सहायता से जो ज्ञान होता है, वह परोक्ष है और वह उपदेश, क्षयोपशम, प्रकाश एवं पूर्वाभ्यास से होता है। जो जीव अकेले अपने