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गाथा-५२
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प्रवचनसार अनुशीलन वैसे तो आचार्य जयसेन भी 'ज्ञानाधिकार यहीं समाप्त हो गया है' - यह स्वीकार कर लेते हैं। इसका उल्लेख भी वे तात्पर्यवृत्ति टीका में स्पष्टरूप से करते हैं; तथापि अन्त में एक गाथा और जोड़ देते हैं; जो आचार्य अमृतचन्द्र की तत्त्वप्रदीपिका टीका में नहीं है।
इस गाथा में कोई नया प्रमेय उपस्थित नहीं किया गया है; अपितु यह गाथा एकप्रकार से अधिकार के अन्त में होनेवाले मंगलाचरणरूप गाथा ही है; क्योंकि तात्पर्यवृत्ति में प्राप्त इसकी उत्थानिका में स्पष्ट उल्लेख है कि ज्ञानप्रपंच के व्याख्यान के उपरान्त अब ज्ञान के आधारभूत सर्वज्ञदेव को नमस्कार करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है
तस्स णमाइं लोगो देवासुरमणुअरायसंबंधो। भत्तो करेदि णिच्चं उवजुत्तो तं तहा वि अहं ।।
(हरिगीत) नमन करते जिन्हें नरपति सुर-असुरपति भक्तगण ।
मैं भी उन्हीं सर्वज्ञजिन के चरण में करता नमन ।। जिन सर्वज्ञदेव को देवेन्द्र, असुरेन्द्र और बड़े-बड़े नरेन्द्र आदि भक्तगण सदा नमस्कार करते हैं; मैं भी उपयोग लगाकर भक्तिभाव से उन्हें नमस्कार करता हूँ।
इसकी टीका में आचार्य जयसेन भी कुछ विशेष न लिखकर सामान्यार्थ ही कर देते हैं।
इसप्रकार यह ज्ञानाधिकार यहाँ समाप्त होता है। इस ज्ञानाधिकार में शुद्धोपयोग के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रियज्ञान अर्थात् क्षायिकज्ञान -केवलज्ञान का स्वरूप विस्तार से समझाया गया है।
इस अधिकार में न केवल अतीन्द्रिय अनंतसुख के साथ प्राप्त होनेवाले अतीन्द्रिय-ज्ञान के गीत गाये गये हैं, इसकी महिमा का गुणगान किया
गया है; अपितु सर्वज्ञता के स्वरूप पर गहराई से चिन्तन किया गया है, विस्तार से प्रकाश डाला गया है।
विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसमें ज्ञान के स्व-परप्रकाशक स्वभाव पर विस्तार से प्रकाश डाला है। अत: जिन्हें सर्वज्ञता पर भरोसा नहीं है; किसी आत्मा का पर को जानना इष्ट नहीं है; अत: सर्वज्ञता भी इष्ट नहीं है; उन्हें इस प्रकरण पर गइराई से मंथन करना चाहिए।
सर्वज्ञता के ज्ञान और उस होनेवाली दृढ़ आस्था से पदार्थों के सुनिश्चित परिणमन की श्रद्धा भी जागृत होती है; जिसके फलस्वरूप अनंत आकुलता एक क्षण में समाप्त हो जाती है। ___पदार्थों के क्रमनियमित परिणमन को गहराई से समझने के लिए भी सर्वज्ञता एक सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन है।
इसप्रकार सर्वज्ञता को समर्पितू यह क्रान्तिकारी अधिकार अत्यधिक उपयोगी और अत्यन्त महत्वपूर्ण प्रक्रियाक निख़्तर तत्त्वमंथन की प्रक्रिया है, किन्तु तत्त्वमंथनरूप विकल्पों से भी आत्मानुभूति प्राप्त नहीं होगी; क्योंकि कोई भी विकल्प ऐसा नहीं जो आत्मानुभूति को प्राप्त करा दे। __ आत्मानुभूति प्राप्त करने के लिए समस्त जगत पर से दृष्टि हटानी होगी। समस्त जगत से आशय है कि आत्मा से भिन्न शरीर, कर्म आदि जड़ (अचेतन) द्रव्य तो ‘पर हैं ही, अपने आत्मा को छोड़कर अन्य चेतन पदार्थ भी 'पर' हैं तथा आत्मा में प्रति समय उत्पन्न होनेवाली विकारी-अविकारी पर्यायें (दशा) भी दृष्टि का विषय नहीं हो सकतीं। उनसे भी परे अखण्ड त्रिकाली चैतन्य ध्रुव आत्मातत्त्व है, वही एकमात्र दृष्टि का विषय है, जिसके आश्रय से आत्मानुभूति प्रगट होती है, जिसे कि धर्म कहा जाता है।
- तीर्थ, महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ-१३५