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प्रवचनसार अनुशीलन
गाथा-४५
जब वह क्षायिकी ही है तो फिर उन अरहंतों के कर्मविपाक भी स्वभाव -विघात का कारण नहीं होता - ऐसा निश्चित होता है।"
यद्यपिआचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा का अर्थ तत्त्वप्रदीपिका के समान ही करते हैं; तथापि उक्त तथ्य की सिद्धि के लिए वे भावमोह से रहित संसारियों का उदाहरण देते हैं।
उनका कथन मूलत: इसप्रकार है
"प्रश्न - उक्त स्थिति में 'औदयिक भाव बंध के कारण हैं' - यह आगमवचन व्यर्थ ही सिद्ध होगा?
उत्तर - यद्यपि औदयिक भाव बंध के कारण हैं; तथापि मोह के उदय से सहित औदयिक भाव ही बंध के कारण हैं; अन्य नहीं । द्रव्यमोह के उदय होने पर भी यदि शुद्धात्मभावना के बल से भावमोहरूप परिणमन नहीं होता है तो बंध नहीं होता।
यदि कर्मोदयमात्र से ही बंध होता हो तो फिर संसारियों के सदैव कर्मोदय की विद्यमानता होने से सदैव-सर्वदा बंध ही होगा, मोक्ष कभी भी हो ही नहीं सकेगा।"
तात्पर्य यह है कि जब कर्मोदय सहित अन्तरात्माओं के अनुभूति के काल में भावमोह के अभाव में बंध नहीं होता तो फिर भावमोह से पूर्णत: रहित कर्मोदय सहित अरहंत परमात्मा के बंध कैसे होगा?
इस गाथा के भाव को समझाने के लिए कविवर वृन्दावनदासजी ने चौदह छन्द लिखे हैं; जिसमें वे मूल गाथा और टीकाओं के भावों को तो छन्दोबद्ध करते ही हैं। साथ ही प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग - इन चार प्रकार के बंधों को भी समझाते हैं। यह स्पष्ट करते हैं कि प्रकृति और प्रदेश बंध योग से होते हैं और स्थिति और अनुभाग बंध मोह अर्थात् मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद और कषाय के कारण होते हैं। चूंकि अरहंत भगवान के मोह का पूर्णतः अभाव हो गया है; अत: उनके स्थिति और
२१५ अनुभाग बंध होने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता है। ऐसी स्थिति में प्रकृति और प्रदेश बंध का कोई महत्त्व ही नहीं रह जाता है; क्योंकि जब कर्मों की स्थिति ही नहीं पड़ेगी तो वे एक समय में ही खिर जायेंगे और जब अनुभाग भी नहीं होगा तो फिर फलदान का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता।
इसके बाद मोह के अभाव में उनके कर्मोदय और भव्यों के भाग्य से होनेवाली क्रियाओं के संबंध में अनेक उदाहरण देते हुए यह समझाते हैं कि अरहंत भगवान का और उक्त क्रियाओं का सहज निमित्त-नैमित्तिक भाव कैसे बन रहा है? तत्संबंधी कुछ महत्त्वपूर्ण छन्द इसप्रकार हैं
(दोहा) भानु वसत आकाश में जल में जलज वसंत । किमि ताको अवलोकते विकसित होत तुरन्त ।।२०४।। अस्त गभस्त विलोकते चकवा तिय तजि देत । लखहु निमित्त नैमतिक को प्रगट अनाहत हेत ।।२०५।। तैसे पुण्यनिधान के प्रश्न होत परमान । जिनधुनि खिरत अनच्छरी इच्छारहित महान ।।२०६।। जैसे शयन दशा विशैं कोउ करि उठत प्रलाप । विनु इच्छा तसु वचन तहं खिरत आपतैं आप ।।२०७।। जब इच्छाजुत को वचन खिरत अनिच्छा येम । तब सो वचन खिरन विर्षे इच्छा को नहिं नेम ।।२०८।। चिंतामनि सुरवृच्छ नै, गुनित अनंतानंत ।
शक्ति सुखद जिनदेह में, सहज सुभाव लसंत ।।२०९।। यद्यपि सूर्य आकाश में रहता है और कमल जल में वसता है; तथापि सूर्य को देखते ही कमल किसप्रकार विकसित हो जाते हैं ?
सूर्य के अस्त होते ही चकवा चकवी से बिछुड़ जाता है। इन बातों से निमित्त-नैमित्तकों का अनाहत भाव देखा जा सकता है।