________________
८२
इह खलु
-
प्रवचनसार
'उदयगदा कम्मंसा जिणवरवसहेहिं णियदिणा भणिया ।
तेसु विमूढ़ो रत्तो दुट्ठो वा बंधमणुभवदि ।। ४३ ।। ' इत्यत्र सूत्रे उदयगतेषु पुद्गलकर्मांशेषु सत्सु संचेतयमानो मोहरागद्वेषपरिणतत्वात् ज्ञेयार्थपरिणमनलक्षणया क्रियया युज्यमानः क्रियाफलभूतं बंधमनुभवति, न तु ज्ञानादिति । प्रथममेवार्थपरिणमनक्रियाफलत्वेन बन्धस्य समर्थितत्वात्, तथा -
'गेहदि णेव ण मुञ्जदि ण परं परिणमदि केवली
भ
ग
व
I
पेच्छदि समंतदो सो जाणदि सव्वं णिरवसेसं ।। ३२ ।। ' इत्यर्थपरिणमनादिक्रियाणामभावस्य शुद्धात्मनो निरूपितत्वाच्चार्थानपरिणमतोऽगृह्णतस्तेष्वनुत्पद्यमानस्य चात्मनोज्ञप्तिक्रियासद्भावेऽपिन खलु क्रियाफलभूतो बंध: सिद्ध्येत् ।।५२।। आचार्य अमृतचन्द्र ज्ञानाधिकार के उपसंहार की इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
"यहाँ
जिनवर कहें उसके नियम से उदयगत कर्मांश हैं ।
वह राग-द्वेष - विमोह बस नित वंध का अनुभव करे ||४३||
जिनवरवृषभों ने कहा है कि संसारी जीवों के उदयगत कर्मांश नियम से होते हैं । उन कर्माशों के होने पर जीव मोही, रागी और द्वेषी होता हुआ बंध का अनुभव करता है।
इसी प्रवचनसार की उक्त ४३ वीं गाथा में कहा है कि उदयगत पुद्गलकर्म के अंशों के अस्तित्व में चेतित होने पर, जानने पर, अनुभव करने पर मोह-राग-द्वेषरूप में परिणत होने से ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया के साथ युक्त होता हुआ आत्मा क्रियाफलभूत बंध का अनुभव करता है; किन्तु ज्ञान से बंध नहीं होता ।
इसप्रकार प्रथम ही अर्थपरिणमन क्रिया के फलरूप से बंध का समर्थन किया गया है । केवली भगवान पर न ग्रहे छोड़े परिणमें ।
तथा -
चहुं ओर से सम्पूर्णत: निरवशेष वे सब जानते ।। ३२ ।।
केवली भगवान पर - पदार्थों को ग्रहण नहीं करते, छोड़ते नहीं और न पररूप परिणमित ही होते हैं; वे तो निरवशेषरूप से सबको सर्व ओर से देखते - जानते हैं ।
इसी प्रवचनसार की उक्त ३२वीं गाथा में शुद्धात्मा के अर्थपरिणमनादि क्रियाओं का अभाव बताया गया है; इसलिए जो आत्मा परपदार्थरूप से परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उनरूप उत्पन्न नहीं होता; उस आत्मा के ज्ञप्तिक्रिया का सद्भाव होने पर भी