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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार
अथ ज्ञानिनोज्ञप्तिक्रियासद्भावेऽपि क्रियाफलभूतं बन्धं प्रतिषेधयन्नुपसंहरति -
ण वि परिणमदि ण गेण्हदि उप्पजदि णेव तेसु अट्टेसु।। जाणण्णवि ते आदा अबंधगो तेण पण्णत्तो ।।५२।।
नापि परिणमति न गृह्णाति उत्पद्यते नैव तेष्वर्थेषु ।
जानन्नपि तानात्मा अबन्धकस्तेन प्रज्ञप्तः ।।५२।। यहाँ क्षयोपशम ज्ञान संबंधी तीन कमजोरियों को उजागर किया गया है। कहा गया है कि केवलज्ञान के समान वह नित्य नहीं है, क्षायिक नहीं है और सर्वगत भी नहीं है; इसलिए वह सभी को नहीं जान सकता, सम्पूर्ण पर्यायों सहित अपने को भी नहीं जान सकता । अनित्य होने से आज जितना ज्ञान हमें है; कल भी उतना ही रहेगा; इसकी कोई गारंटी नहीं।
क्षायिक ज्ञान की तुलना में यह क्षयोपशम ज्ञान अत्यन्त अल्प है, अस्पष्ट है, परोक्ष और नाशवान है। क्षायिक ज्ञान सम्पूर्ण पदार्थों को उनके गुण-पर्यायों सहित एक समय में एक साथ जाननेवाला है, अत्यन्त स्पष्ट है, प्रत्यक्ष है, नित्य एकरूप ही रहनेवाला है; अत: प्राप्त करने की दृष्टि से परम उपादेय है।
इसप्रकार इन गाथाओं में क्षायोपशमिक ज्ञान की लघुता और क्षायिकज्ञान की महानता बताई गई है।।५०-५१।।
विगत गाथाओं में यह कहा गया है कि क्रमश: प्रवर्तमान ज्ञान क्षायोपशमिक होने से अनित्य है और क्रमिक ज्ञानवाला पुरुष सर्वज्ञ नहीं हो सकता; किन्तु अक्रम से प्रवर्तमान ज्ञान क्षायिक होने से नित्य है और अक्रमिक ज्ञानवाला पुरुष ही सर्वज्ञ हो सकता है।
अब ज्ञानाधिकार की इस अन्तिम गाथा में उपसंहार करते हुए कहते हैं कि केवलज्ञानी के ज्ञप्तिक्रिया के सद्भाव होने पर भी उन्हें क्रिया से होनेवाला बंध नहीं होता। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है।
(हरिगीत ) सवार्थ जाने जीव पर उनरूप न परिणमित हो।
बस इसलिए है अबंधक ना ग्रहे ना उत्पन्न हो।।५२।। केवलज्ञानी आत्मा पदार्थों को जानता हुआ भी उनरूप परिणमित नहीं होता, उन्हें ग्रहण नहीं करता और उन पदार्थों के रूप में उत्पन्न भी नहीं होता; इसलिए उसे अबंधक कहा है।