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प्रवचनसार
व्यक्तित्वेनाभिव्यक्तस्वभावभासिक्षायिकभावं त्रैकाल्येन नित्यमेव विषमीकृतांसकलामपि सर्वार्थसंभूतिमनन्तजातिप्रापितवैचित्र्यां परिच्छिन्ददक्रमसमाक्रान्तानन्तद्रव्यक्षेत्रकालभावतया प्रकटीकृताद्भुतमाहात्म्यं सर्वगतमेव स्यात् ।।५१।। से जिसने स्वभावप्रकाशक क्षायिकभाव प्रगट किया है; वह ज्ञान विषम रहनेवाले अर्थात् असमानजाति रूप से परिणमित होनेवाले और अनंत प्रकारों के कारण विचित्रता को प्राप्त सम्पूर्ण पदार्थों के समूह को त्रिकाल में सदा जानते हुए, अक्रम से अनंत द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव को प्राप्त होने से जिसने अद्भुत माहात्म्य प्रगट किया है - ऐसा सर्वगत है।"
तात्पर्य यह है कि पदार्थों को क्रम-क्रम से जाननेवाले क्षयोपशम ज्ञानी सर्वज्ञ नहीं हैं; अपितु सम्पूर्ण गुण-पर्यायों सहित सभी पदार्थों को एकसाथ जाननेवाले क्षायिकज्ञानी ही सर्वज्ञ हैं। यह सर्वज्ञता ही ज्ञान का स्वभाव है, स्वभाव परिणमन है, सदा रहनेवाली है; क्षयोपशम ज्ञानरूप अल्पज्ञता न तो सदा एक सी रहनेवाली ही है और न एकसाथ सबको जान हीसकती है।
इसप्रकार यहाँ क्षायिकज्ञानरूप सर्वज्ञता की महिमा बताई गई है और क्षयोपशमज्ञानरूप अल्पज्ञता की अनित्यता, असारता स्पष्ट की गई है।
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इन गाथाओं का निष्कर्ष निकालते हुए स्वयं प्रश्न उठाकर उत्तर देते हुए इसप्रकार मार्गदर्शन देते हैं -
"प्रश्न - एकसाथ सम्पूर्ण पदार्थों को जाननेवाले ज्ञान से सर्वज्ञ होते हैं - ऐसाजानकर क्या करना चाहिए?
उत्तर - अज्ञानी जीवों के चित्त को चमत्कृत करने के कारण परमात्मभावना को नष्ट करनेवाले जोज्योतिष, मंत्रवाद, रससिद्धि आदिएकदेशज्ञानरूपक्षयोपशमज्ञान है; तत्संबंधी आग्रह छोड़कर तीन लोक तीन कालवर्ती सम्पूर्ण वस्तुओं को एकसाथ प्रकाशित करनेवाले अविनश्वर, अखण्ड, एक प्रतिभासमय सर्वज्ञता की उत्पत्ति का कारणभूत, सम्पूर्ण रागादि विकल्प-जालरहित सहज शुद्धात्मा से अभेदरूप ज्ञान की भावना करनी चाहिए। - यह तात्पर्य है।" ___ इन गाथाओं में क्षायोपशमिक ज्ञान की कमजोरियों को उजागर करते हुए उसके आश्रय से होनेवाले अहंकार का परिहार कर क्षायिक ज्ञान की महिमा बताई गई है; क्योंकि अनंत अतीन्द्रिय सुख की पूर्णतः प्राप्ति एकमात्र क्षायिकज्ञानवालों को ही होती है।