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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार
क्रियाफलभूत बंध सिद्ध नहीं होता । "
( स्रग्धरा )
जानन्नप्येष विश्यं युगपदपि भवद्भाविभूतं समस्तं मोहाभावाद्यदात्मा परिणमति परं नैव निर्लूनकर्मा ।
आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति में इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका के समान ही निरूपण करते हुए अन्त में स्वसंवेदनज्ञान की प्रेरणा देते हुए लिखते हैं कि रागादि रहित ज्ञान बंध का कारण नहीं है - ऐसा जानकर रागादि रहित निर्विकार स्वसंवेदनज्ञान की ही भावना करनी चाहिए ।
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वस्तुतः इस गाथा में सम्पूर्ण ज्ञानाधिकार में प्रतिपादित विषयवस्तु का ही उपसंहार है; नया प्रमेय कुछ भी नहीं है। सम्पूर्ण कथन का निष्कर्ष यह है कि केवली भगवान ज्ञान को ही ग्रहण करते हैं, ज्ञानरूप ही परिणमित होते हैं और ज्ञानरूप में ही उत्पन्न होते हैं । इसप्रकार केवली भगवान के प्राप्य, विकार्य और निर्वृर्त्य - तीनों कर्म ज्ञान ही हैं, ज्ञानरूप ही हैं । इसप्रकार हम देखते हैं कि ज्ञान ही केवली भगवान का कर्म है और ज्ञप्ति ही केवली भगवान की क्रिया है ।
ज्ञप्तिक्रिया बंध का कारण नहीं है, अपितु ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया अर्थात् ज्ञेयपदार्थों के सम्मुख वृत्ति होना ही बंध का कारण है । केवली भगवान के ज्ञप्तिक्रिया होने पर भी ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया नहीं है; इसकारण उन्हें बंध नहीं होता ।
इसप्रकार उक्त गाथा और उसकी टीका में मात्र इतना ही कहा गया है कि वीतरागभावपूर्वक सहजभाव से होनेवाला पर-पदार्थों का ज्ञान बंध का कारण नहीं है; क्योंकि स्वपर को जानना तो आत्मा का सहजस्वभाव है; अतः किसी को भी जानना बंध का कारण कैसे हो सकता है ?
वस्तुतः बंध का कारण तो रागभाव है; इसकारण ज्ञेयार्थपरिणमनरूप क्रिया के कर्ता रागी-द्वेषी-मोही जीव बंध को प्राप्त होते हैं; किन्तु जिन वीतरागी भगवन्तों के ज्ञान में वीतरागभाव से सहज जानना होता रहता है; उनका वह ज्ञान बंध का कारण नहीं है। यही कारण है कि केवली भगवान को बंध नहीं होता ।। ५२ ।।
इस अधिकार के अन्त में तत्त्वप्रदीपिका टीका के कर्ता आचार्य अमृतचन्द्रदेव एक महत्त्वपूर्ण काव्य लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
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( मनहरण कवित्त )
जिसने किये हैं निर्मूल घातिकर्म सब ।
अनंत सुख वीर्य दर्श ज्ञान धारी आतमा || भूत भावी वर्तमान पर्याय युक्त सब ।