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प्रवचनसार
अथैवं सति तीर्थकृतां पुण्यविपाकोऽकिंचित्कर एवेत्यवधारयति -
पुण्णफला अरहता तेसिं किरिया पुणो हि ओदइया। मोहादीहिं विरहिदा तम्हा सा खाइग त्ति मदा।।४५।।
पुण्यफला अर्हन्तस्तेषां क्रिया पुनर्हि औदयिकी।
मोहादिभिः विरहिता तस्मात् सा क्षायिकीति मता ।।४५।। भी तो महिलायें ही थीं। तीर्थंकरों की मातायें भी तो महिलायें ही होती हैं। उक्त कथन को स्त्रीनिन्दा के रूप में देखना समझदारी का काम नहीं है। यह स्त्री पर्याय में सहजभाव से होनेवाले भाव की बात है। महिलाओं के स्वभावगत मायाचार की तुलना भी तो अरहंत केवली के विहारादि कायिक क्रियाओं और केवली की दिव्यध्वनि से की है।
क्या आचार्यदेव दिव्यध्वनि की भी निन्दा करना चाहते हैं?
दूसरे किसी भी आचार्य की कृति में फेरफार करने का अधिकार भी हमें कहाँ है ? जब आचार्य अमृतचन्द्र, आचार्य जयसेन, सहजानन्दजी वर्णी, पाण्डे हेमराजजी, कविवर वृन्दावनदासजी एवं आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी आदि सभी को यह सहजभाव से स्वीकार है और इसमें उन्हें महिलाओं का अपमान नहीं दिखाई देता है तो फिर हमें ऐसा विकल्प क्यों आता है? विगत दो हजार वर्षों में किसी को भी ऐसा भाव नहीं आया; पर आज यह सब हो रहा है। अरे भाई! व्यर्थ के विकल्पों में उलझे बिना उक्त कथन में व्यक्त किये गये भावों को समझने में शक्ति लगाना ही श्रेयस्कर है।।४४||
विगत गाथाओं में यह कहा गया है कि यद्यपि भव्यों के भाग्य और अरहंत भगवान के पूर्व पुण्योदय के अनुसार दिव्यध्वनि प्रसारण व विहारादि कार्य देखे जाते हैं; तथापि मोह-राग-द्वेष के अभाव के कारण उन्हें बंध नहीं होता।
अब इस गाथा में उसी बात को आगे बढ़ाते हुए यह कह रहे हैं कि तीर्थंकरों के पुण्य का विपाक अकिंचित्कर ही है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) पुण्यफल अरहंत जिन की क्रिया औदयिकी कही।
मोहादि विरहित इसलिए वह क्षायिकी मानी गई||४५|| अरहंत भगवान पुण्य फलवाले हैं और उनकी क्रिया औदयिकी है, किन्तु मोहादिरहित है: इसकारण वह औदयिकी क्रियाभीक्षायिकीमानीगई है।