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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार
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अर्हन्तः खलु सकलसम्यक्परिपक्वपुण्यकल्पपादपफला एव भवन्ति । क्रिया तु तेषां या काचन सा सर्वापि तदुदयानुभावसंभावितात्मसंभूतितया किलौदयिक्येव ।
अथैवंभूतापिसा समस्तमहामोहमूर्धाभिषिक्तस्कन्धावारस्यात्यन्तक्षये संभूतत्वान्मोहरागद्वेषरूपाणामुपरञ्जकानामभावाच्चैतन्यविकारकारणतामनासादयन्ती नित्यमौदयिकी कार्यभूतस्य बन्धस्याकारणभूततया कार्यभूतस्य मोक्षस्य कारणभूततया च क्षायिक्येव कथं हि नाम नानुमन्येत । अथानुमन्येत चेत्तर्हि कर्मविपाकोऽपिन तेषां स्वभावविघाताय ।।४५।।
इस गाथा का भाव आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार करते हैं -
“जिनके पुण्यरूपी कल्पवृक्ष के समस्त फल भलीभांति पक गये हैं; उन अरहंत भगवान की जो भी क्रिया है, वह सब पुण्य के उदय के प्रभाव से उत्पन्न होने के कारण औदयिकी ही है। ऐसा होने पर भी, महामोह राजा की समस्त सेना के क्षय से उत्पन्न होने से, मोह-रागद्वेषरूपी उपरंजकों के अभाव के कारण से वह औदयिकी क्रिया भी चैतन्य के विकार का कारण नहीं होती। इसकारण उक्त औदयिकी क्रिया को कार्यभूत बंध की अकारणता और कार्यभूत मोक्ष की कारणता के कारण क्षायिकी ही क्यों न मानी जाय? ___ जब वह क्षायिकी ही है तो फिर उन अरहंतों के कर्मविपाक भी स्वभाव-विघात का कारण नहीं होता - ऐसा निश्चित होता है।"
यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा का अर्थ तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही करते हैं; तथापि उक्त तथ्य की सिद्धि के लिए वे भावमोह से रहित संसारियों का उदाहरण देते हैं। उनका कथन मूलत: इसप्रकार है -
"प्रश्न - उक्त स्थिति में 'औदयिकभाव बंध के कारण हैं - यह आगमवचन व्यर्थ ही सिद्ध होगा?
उत्तर - यद्यपिऔदयिकभाव बंध के कारण हैं:तथापिमोह के उदय सेसहित औदयिक भावहीबंध के कारण हैं; अन्य नहीं। द्रव्यमोह के उदय होने पर भीयदियह जीवशुद्धात्मभावना के बल से भावमोहरूप परिणमन नहीं करता है तो बंध नहीं होता।
यदि कर्मोदयमात्र से ही बंध होताहोतो फिर संसारियों के सदैव कर्मोदय की विद्यमानता होने से सदैव-सर्वदा बंध ही होगा, मोक्ष कभी भी हो ही नहीं सकेगा।"
उक्त सम्पूर्ण कथन का तात्पर्य यह है कि यद्यपि अरहंत भगवान के पूर्वपुण्य के उदय में समवशरण आदि विभूति होती है, विहार होता है, दिव्यध्वनि भी खिरती है; तथापि इन