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ज्ञानतत्त्वप्रज्ञापन : ज्ञानाधिकार
एकत्व-ममत्व हैं, कर्तृत्व-भोक्तृत्व हैं, राग-द्वेष हैं । केवली भगवान के होनेवाली इन क्रियाओं में उनका न तो एकत्व-ममत्व है, न कर्तृत्व-भोक्तृत्व है और न उन्हें उनके प्रति राग-द्वेष हैं; यही कारण है कि उन्हें इनसे बंध नहीं होता। ___ वस्तुत: बात यह है कि अरहंत भगवान के विहार आदि शरीरसंबंधी क्रियायें तो आहार वर्गणा के कार्य हैं और दिव्यध्वनि का खिरना भाषावर्गणा का कार्य है। इन क्रियाओं का उपादानकारण तो आहारवर्गणा और भाषावर्गणा हैं और अंतरंग निमित्तकारण तत्संबंधी कर्मों का उदय है। अरहंत भगवान का आत्मा न तो इनका उपादान कारण ही है और न अंतरंग निमित्तकारण ही। जब अरहंत भगवान इसके कर्ता ही नहीं हैं; उनका इनमें एकत्व-ममत्व भी नहीं है तो फिर उन्हें बंध भी क्यों हो ? __बंध के कारण तो मोह-राग-द्वेषरूप भाव हैं। इन मोह-राग-द्वेषरूप भावों से केवली भगवान सर्वथा रहित हैं; अत: संयोग में उक्त क्रियायें होने पर भी संयोगी भावों के अभाव के कारण उन्हें बंध नहीं होता।
यहाँ एक प्रश्न संभव है कि यदि भाषावर्गणाओं की तत्समय संबंधी उपादानगत योग्यता और संबंधित कर्मों का उदय ही दिव्यध्वनि के कारण हैं; अरहंत केवली का दिव्यध्वनि से कोई भी संबंध नहीं है तो फिर दिव्यध्वनि की प्रामाणिकता का आधार क्या है ?
अरे भाई ! उपादान-उपादेय संबंध नहीं है और अंतरंगनिमित्त की अपेक्षा निमित्तनैमित्तिक संबंध भी नहीं है; फिर भी बहिरंग निमित्त की अपेक्षा सूर्य के उदय और कमल के खिलने के समान अरहंत भगवान और उनकी दिव्यध्वनि में सहज निमित्त-नैमित्तिकभाव तो है ही; दिव्यध्वनि की प्रामाणिकता का आधार भी यही है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि दिव्यध्वनि में वस्तु का स्वरूप जैसा प्रतिपादित हुआ है; वस्तु भी ठीक उसीप्रकार की है। प्रामाणिकता के लिए इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है ?
कुछ लोग इस गाथा में समागत मायाचारो व्व इत्थीणं पद पर बहुत नाक-भौं सिकोड़ते हैं। उनका कहना है कि स्त्रियों में मायाचार स्वभावगत है - ऐसा कहकर आचार्यदेव ने महिलाओं का अपमान किया है। कुछ लोग तो यहाँ तक आगे बढ़ते हैं कि इस पद को बदल देना चाहिए। उनकी सलाह के अनुसार मायाचार के स्थान पर मातृकाचार कर देना चाहिए।
पर भाई, इसमें किसी की निन्दा-प्रशंसा की बात ही कहाँ है ? आचार्यदेव की माँ-बहिन