________________
६४
प्रवचनसार
यथा हि महिलानांप्रयत्नमन्तरेणापितथाविधयोग्यतासद्भावात् स्वभावभूत एव मायोपगुण्ठनागुण्ठितो व्यवहारः प्रवर्तते, तथा हि केवलिनां प्रयत्नमन्तरेणापि तथाविधयोग्यता सद्भावात् स्थानमासनं विहरणं धर्मदेशना चस्वभावभूता एव प्रवर्तन्ते। ___ अपि चाविरुद्धमेतदम्भोधरदृष्टान्तात् । यथा खल्वम्भोधराकारपरिणतानां पुद्गलानां गमनमवस्थानं गर्जनमम्बुवर्षं च पुरुषप्रयत्नमन्तरेणापि दृश्यन्ते, तथा केवलिनांस्थानादयोऽबुद्धिपूर्वका एव दृश्यन्ते । अतोऽमी स्थानादयो मोहोदयपूर्वकत्वाभावात् क्रियाविशेषा अपि केवलिनां क्रियाफलभूतबन्धसाधनानि न भवन्ति ।।४४।।
उन अरहंत भगवंतों के उस समय खड़े रहना, बैठना, विहार करना और धर्मोपदेश करना आदि क्रियायें स्त्रियों के मायाचार की भांति स्वाभाविक ही हैं, प्रयत्न बिना ही होती है।
उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“जिसप्रकार महिलाओं के प्रयत्न बिना ही उसप्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से माया के ढक्कन से ढंका हुआ व्यवहार स्वभावभूत ही प्रवर्तता है; उसीप्रकार केवलीभगवान के प्रयत्न बिना ही उसप्रकार की योग्यता का सद्भाव होने से खड़ा रहना, बैठना, विहार करना और उपदेश देना आदि क्रियायें स्वभावभूत ही प्रवर्तती है।
यह बात बादल के दृष्टान्त से भी समझी जा सकती है; क्योंकि बादल के उदाहरण के साथ भी इसका कोई विरोध भासित नहीं होता।
जिसप्रकार बादल के आकाररूप परिणमित पुद्गलों का गमन, स्थिरता, गर्जन और बरसना आदि क्रियायें पुरुष के प्रयत्न बिना ही देखी जाती है; उसीप्रकार केवली भगवान के खड़े रहना, चलना, दिव्यध्वनि आदि क्रियायें अबुद्धिपूर्वक बिना इच्छा के ही देखी जाती हैं। केवलीभगवान की ये क्रियायें मोहोदयपूर्वक न होने से क्रिया के फल में होनेवाले बंध के कारण नहीं हैं।" ___ वस्तुत: बात यह है कि बाह्य क्रियायें तो बंध का कारण हैं ही नहीं; क्योंकि यह आत्मा निश्चय से उनका कर्ता-धर्ता ही नहीं है। ये क्रियायें पूर्वबद्ध कर्म के उदय के निमित्त से होती हैं; उनके होने में आत्मा निमित्त भी नहीं है; इसीलिए उन क्रियाओं को औदयिकी क्रियायें कहते हैं।
उक्त क्रियाओं के लक्ष्य से जब यह आत्मा मोह-राग-द्वेष करता है, उनमें एकत्व-ममत्व करता है, कर्तृत्व-भोक्तृत्वरूप से जुड़ता है; तब बंध होता है। अत: बंध के कारण तो ये