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चरणानुयोगसूचकचूलिका : पंचरत्न अधिकार अथ संसारतत्त्वमुद्घाटयति -
जे अजधागहिदत्था एदे तच्च त्ति णिच्छदा समये। अच्चंतफलसमिद्धं भमंति ते तो परं कालं ।।२७१।। ___ये अयथागृहीतार्था एते तत्त्वमिति निश्चिता: समये।
__ अत्यन्तफलसमृद्धं भ्रमन्ति ते अतः परं कालम् ।।२७१।। ये स्वयमविवेकतोऽन्यथैव प्रतिपाद्यार्थानित्यमेव तत्त्वमिति निश्चयमारचयन्तः सततं समुपचीयमानमहामोहमलमलीमसमानसतया नित्यमज्ञानिनोभवन्ति, ते खलु समये स्थिता अप्यनासादितपरमार्थश्रामण्यतया श्रमणाभासा: सन्तोऽनन्तकर्मफलोपभोगप्राग्भारभयंकरमनन्तकालमनन्तभावान्तरपरावर्तेरनवस्थितवृत्तयः संसारतत्त्वमेवावबुध्यताम्।।२७१।।
इस मंगलाचरण के छन्द में आगामी पाँच गाथाओं को पंचरत्न नाम से अभिहित किया गया है और उन्हें कलगी के अलंकार के समान सम्पूर्ण प्रवचनसार का चूड़ामणि बताया गया है तथा यह कहा गया है कि इन पाँच गाथाओं में पूरे प्रवचनसार का सार समाहित है।।१८।। इस गाथा में संसारतत्त्व के स्वरूप का उद्घाटन किया गया है; जो इसप्रकार है -
(हरिगीत) अयथार्थग्राही तत्त्व के हों भले ही जिनमार्ग में।
कर्मफल से आभरित भवभ्रमे भावीकाल में ।।२७१।। भले ही वे द्रव्यलिंगी मुनिराज जिनशासन में ही क्यों न हों; तथापि वे तत्त्व यह है'इसप्रकार निश्चयवान वर्तते हुए पदार्थों को अयथार्थ (गलत) रूप में ग्रहण करते हैं; अत: वे अनन्त कर्मफलों से भरे हुए चिरकाल तक संसार में परिभ्रमण करेंगे। इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“जो द्रव्यलिंगीश्रमण स्वयं के अविवेक से पदार्थो के स्वरूपकोअन्यथा ही जानकर, स्वीकार कर तत्त्व अर्थात् वस्तुस्वरूपऐसा ही है' - ऐसा निश्चय करते हुए; निरन्तर एकत्रित किये जानेवाले महामोहमल से मलिन चित्तवाले होने से नित्य ही अज्ञानी रहते हैं; वे भले ही जिनमार्ग में स्थित हों; तथापि परमार्थ श्रामण्य को प्राप्त न होने से वस्तुतः श्रमणाभास ही हैं। अनंत कर्मफल के उपभोग के भार से भयंकर अनन्तकालतक अनन्त भवान्तररूप परावर्तनों से अनवसित वृत्तिवाले रहने से उन द्रव्यलिंगी मुनिराजों को संसारतत्त्व जानना।"
इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि आत्मज्ञान अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से रहित होकर भी जिन्होंने नग्न दिगम्बर वेष धारण कर लिया है - ऐसे मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी