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________________ पंचरत्न अधिकार (गाथा २७१ से गाथा २७५ तक) अथ पञ्चरत्नम्। (शार्दूलविक्रीडित ) तन्त्रस्यास्य शिखण्डमण्डनमिव प्रद्योतयत्सर्वतोद्वैतीयीकमथाहतो भगवतः संक्षेपत: शासनम् । व्याकुर्वञ्जगतो विलक्षणपथां संसारमोक्षस्थिति जीयात्संप्रति पञ्चरत्नमनघं सूत्रैरिभैः पञ्चभिः ।।१८।। मगलाचरण (दोहा) भावलिंग के बिना यह द्रव्यलिंग संसार। द्रव्य भाव दोनों मिले मुक्ति मुक्ति का द्वार|| इसप्रकार शुभोपयोग अधिकार के समाप्त हो जाने के बाद शेष पाँच गाथाओं के समूह को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में पंचरत्न नाम से अभिहित करते हैं। उक्त पंचरत्न गाथाओं को आरंभ करने के पहले आचार्य अमृतचन्द्रदेव मंगलाचरण के रूप में एक छन्द लिखते हैं। छन्द का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (मनहरण) अब इस शास्त्र के मुकुटमणि के समान। पाँच सूत्र निरमल पंचरत्न गाये हैं।। जो जिनदेव अरहंत भगवन्त के। अद्वितीय शासन को सर्वतः प्रकाशें हैं। अद्भुत पंचरत्न भिन्न-भिन्न पंथवाली। भव-अपवर्ग की व्यतिरेकी दशा को।। तप्त-संतप्त इस जगत के सामने। __ प्रगटित करते हुये जयवंत वर्तो||१८|| अब इस शास्त्र के कलगी के अलंकार के समान अर्थात् चूड़ामणि (मुकुटमणि) के समान यह पाँच सूत्ररूप निर्मल पंचरत्न, जो अरहंत भगवान के अद्वितीय समग्र शासन को संक्षेप में सम्पूर्णत: प्रकाशित करते हैं; वे पंचरत्न विलक्षण पंथवाली संसार व मोक्ष की स्थिति कोजगत के समक्ष प्रगट करते हए जयवंत वर्तो।
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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