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चरणानुयोगसूचकचूलिका : शुभोपयोगप्रज्ञापनाधिकार
५०५ हो जाते हैं। यह शुभोपयोग प्रज्ञापनाधिकार की अन्तिम गाथा है। इसके उपरान्त इस अधिकार
(शार्दूलविक्रीडित ) इत्यध्यास्य शुभोपयोगजनितां कांचित्प्रवृत्तिं यति: सम्यक् संयमसौष्ठवेन परमां क्रामन्निवृत्तिं क्रमात् । हे लाक्रान्तसमस्तवस्तु विसरप्रस्ताररम्योदयां ज्ञानानन्दमयी दशामनुभवत्वेकान्ततः शाश्वतीम् ।।१७।।
__ - इति शुभोपयोगप्रज्ञापनम् । का समापन करते हुए आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है
(मनहरण) इसप्रकार शुभ उपयोगमयी किंचित् ही।
शुभरूप वृत्ति का सुसेवन करके। सम्यकप्रकार से संयम के सौष्टव से।
आप ही क्रमशर निरवृत्ति करके। अरे ज्ञानसूर्य का है अनुपम जो उदय।।
सब वस्तुओं को मात्र लीला में ही लख लो।। ऐसी ज्ञानानन्दमयी दशा एकान्ततः।
अपने में आप ही नित अनुभव करो||१७|| इसप्रकार शुभोपयोगजनित किंचित् प्रवृत्ति का सेवन करके यति सम्यक्त्व सहित संयम के सौष्ठव से क्रमशः परमनिवृत्ति को प्राप्त होता हुआ; जिसका रम्य उदय समस्त वस्तु समूह के विस्तार को लीलामात्र में प्राप्त हो जाता है, जान लेता है; हे मुनिवरो! ऐसी शाश्वत ज्ञानानन्दस्वभावी दशा का एकान्ततः अपने में आप ही नित्य अनुभव करो।
अधिकार के अन्त में आचार्यदेव आत्मा का अनुभव करने की प्रेरणा देते हुए यह कहते हैं कि भले ही भूमिकागत कमजोरी के कारण कुछ काल शुभोपयोग में जावे; फिर भी सम्यग्दर्शन सहित संयम के बल से इन शुभभावों के भी परम निवृत्ति को प्राप्त कर श्रमण जन लीलामात्र में अपने लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं। इसलिए श्रमणजनो ! ज्ञानानन्दस्वभावी त्रिकाली ध्रुव अपने आत्मा में अपनापन करो; उसमें ही समा जावो।।
इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार की आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीकाऔर डॉ. हुकमचन्दभारिल्ल कृत ज्ञान-ज्ञेयतत्त्वप्रबोधिनी हिन्दी टीका में चरणानुयोगसूचकचूलिका महाधिकार के अंतर्गत शुभोपयोगप्रज्ञापन अधिकार समाप्त होता है।