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________________ ५०४ हमसे अधिक गुण हैं, उनकी संगति में रहने की बात कही गई है। यदि अधिक गुणवालों का समागम संभव न तो समान गुणवालों की संगति रहना चाहिए। जिसप्रकार अग्नि के संयोग से पानी गर्म हो जाता है; उसीप्रकार लौकिकजनों के संसर्ग से संयमी भी असंयमी हो जाते हैं । सत्संगति का लाभ बताते हुए आचार्यदेव टीका में तीन उदाहरण देते हैं। प्रथम अग्नि के संयोग में रखे हुए जल का, दूसरा शीतल घर के कोने में रखे हुए घड़े का और तीसरा बर्फ के संसर्ग में रखे हुए घड़े का । जिसप्रकार अग्नि के संयोग में रहनेवाला जल गर्म हो जाता है; उसीप्रकार लौकिकजनों के संसर्ग से श्रमण असंयमी हो जाते हैं; जिसप्रकार शीतल घर के कोने में रखे हुए घड़े के ठंडे जल की रक्षा होती है, वह गर्म नहीं हो पाता; उसीप्रकार समान गुणवालों का संगति से अपने सद्गुणों की रक्षा होती है और जिसप्रकार बर्फ की संगति में रखे हुए घड़े का जल अधिक शीतल हो जाता है; उसीप्रकार अधिक गुणवालों की संगति से हमारे गुणों में वृद्धि होती है। इसलिए श्रमणों को सदा ही या तो अधिक गुणवालों की संगति में रहना चाहिए या फिर समान गुणवालों की संगति में रहना चाहिए। यद्यपि यह सम्पूर्ण कथन श्रमणों के लिए ही किया गया है; तथापि श्रावकों को भी इसका लाभ लेना चाहिए । इस बात का उल्लेख कविवर वृन्दावनदासजी भी इसप्रकार करते हैं - (दोहा) - प्रवचनसार यों मत चित में जानियों, मुनिकहँ यह उपदेश । श्रावक को तो नहिं कह्यौ, मूल ग्रंथ में लेश ॥८०॥ नमिष सबको कह्यौ, न्याय रीति निरबाह । जिहि मग में नृप पग धरै, प्रजा चलै तिहि राह ॥ ८१ ॥ ऐसो जानि हिये सदा, जिन आगम अनुकूल । करो आचरन हे भविक, करम जलैं ज्यों तूल ॥८२॥ चूंकि मूल ग्रन्थ में तो यह कहीं नहीं कहा है कि यह उपदेश श्रावकों के लिए भी है। इसलिए हे श्रावकजनो ! तुम यह मत समझना कि यह सब उपदेश मुनियों के लिए ही है। मुनियों के बहाने यह न्याय और रीति-नीति का उपदेश सभी को दिया गया 1 जिसप्रकार जिस रास्ते पर राजा चलता है, प्रजा भी उसी रास्ते पर चलने लगती है; उसीप्रकार मुनियों के समान ही श्रावकों को भी सत्संगति में रहना ही श्रेयस्कर है। ऐसा जानकर, इस बात को हृदय में धारण कर सदा ही सभी को जिनागम के अनुकूल आचरण करना चाहिए। ऐसा करने से आग के सम्पर्क में आई हुई रुई के समान कर्म भी क्षण भर में भस्म
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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