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प्रवचनसार
अथ मोक्षतत्त्वमुद्घाटयति -
अजधाचारविजुत्तो जधत्थपदणिच्छिदो पसंतप्पा। अफले चिरं ण जीवदि इह सो संपुण्णसामण्णो।।२७२।। __ अयथाचारवियुक्तो यथार्थपदनिश्चित: प्रशान्तात्मा।
अफले चिरं न जीवति इह स संपूर्णश्रामण्यः ।।२७२।। यस्त्रिलोकचूलिकायमाननिर्मलविवेकदीपिकालोकशालितया यथावस्थितपदार्थनिश्चयनिवर्तितौत्सुक्यस्वरूपमन्थरसततोपशान्तात्मा सन् स्वरूपमेकमेवाभिमुख्येन चरन्नयथाचावियुक्तो नित्यं ज्ञानी स्यात्, स खलु संपूर्णश्रामण्य: साक्षात् श्रमणो हेलावकीर्णसकलप्राक्तनकर्मफलत्वादनिष्पादितनूतनकर्मफलत्वाच्च पुनः प्राणधारणदैन्यमनास्कन्दन् द्वितीयभावपरावर्ताभावात् शुद्धस्वभावावस्थितवृत्तिर्मोक्षतत्त्वमवबुध्यताम् ।।२७२।। मुनि ही वस्तुतः संसार हैं, संसारतत्त्व हैं। मुनिधर्म को बदनाम करनेवाले ऐसे वेषधारी श्रमण अपरिमित काल तक संसार में ही परिभ्रमण करेंगे ।।२७१ ।।
विगत गाथा में संसारतत्त्व का स्वरूप स्पष्ट कर अब इस गाथा में मोक्षतत्त्व का स्वरूप समझाते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) यथार्थव्याही तत्त्व के अर रहित अयथाचार से |
प्रशान्तात्मा श्रमण वे ना भवभ्रमे चिरकाल तक ||२७२|| जोश्रमण पदों और पदार्थों के निश्चयवाले होने से प्रशान्तात्मा हैं और अन्यथा आचरण से रहित हैं; सम्पूर्ण श्रामण्यवाले वे श्रमण, कर्मफल से रहित हैं और वे इस संसार में चिरकाल तक नहीं रहते।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“जो श्रमण त्रिलोक की चूलिका के समान निर्मल विवेकरूपी दीपिका के प्रकाशवाले होने से और पदार्थों के वास्तविक निश्चय से उत्सुकता का निवर्तन करके स्वरूपमंथर रहने से सतत् प्रशान्तात्मा तथा स्वरूप में अभिमुखरूप से विचरते होने के कारण अयत्नाचार रहित होने से नित्य ज्ञानी हैं; वे सम्पूर्ण श्रामण्यवाले साक्षात् श्रमण मोक्षतत्त्व हैं; क्योंकि उन्होंने पूर्व के समस्त कर्मों के फल कोलीलामात्र में नष्ट कर दिया है और वे नये कर्मों के फल को उत्पन्न नहीं करते; इसलिए पुनः प्राणधारणरूप दीनता को प्राप्त न होते हुए भावरूप परावर्तन के अभाव के कारण शुद्धस्वभाव में अवस्थित रहते हैं।"