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चरणानुयोगसूचकचूलिका : शुभोपयोगप्रज्ञापनाधिकार
एसा पसत्थभूदा समणाणं वा पुणो घरत्थाणं । चरिया परे त्ति भणिदा ताएव परं लहदि सोक्खं ।।२५४।।
रोगेण वा क्षुधया तृष्णया वा श्रमेण वा रूढम् । दृष्ट्वा श्रमणं साधुः प्रतिपद्यतामात्मशक्त्या ।।२५२।। वैयावृत्त्यनिमित्तं ग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानाम् । लौकिकजनसंभाषा न निन्दिता वा शुभोपयुता ।।२५३।। एषा प्रशस्तभूता श्रमणानां वा पुनर्गृहस्थानाम् ।
चर्या परेति भणिता तयैव परं लभते सौख्यम् ।।२५४।। यदा हि समधिगतशुद्धात्मवृत्ते: श्रमणस्य तत्प्रच्यावनहेतो: कस्याप्युपसर्गस्योपनिपात: स्यात्, स शुभोपयोगिनः स्वशक्तया प्रतिचिकीर्षा प्रवृत्तिकालः । इतरस्तु स्वयं शुद्धात्मवृत्तेः समधिगमनाय केवलं निवृत्तिकाल एव ।।२५२।।
समधिगतशुद्धात्मवृत्तीनांग्लानगुरुबालवृद्धश्रमणानां वैयावृत्त्यनिमित्तमेव शुद्धात्मवृत्तिशून्यजनसंभाषणं प्रसिद्धं, न पुनरन्यनिमित्तमपि।।२५३।।
प्रशस्त चर्या श्रमण के हो गौण किन्तु गृहीजन |
के मुख्य होती है सदा अर वे उसी से सुखी हो।।२५४|| रोग से, क्षुधा (भूख) से, तृषा (प्यास) अथवाश्रम से आक्रान्त श्रमण को देखकर साधु अपनी शक्ति के अनुसार वैयावत्ति करो।
रोगी, गुरु, बाल और वृद्ध श्रमणों की सेवा के निमित्त से शुभोपयोग युक्त लौकिक जनों के साथ की बातचीत निन्दित नहीं है।
यह वैयावृत्तरूप प्रशस्त चर्याश्रमणों के गौणरूप से और गृहस्थों को मुख्य रूप से होती है - ऐसा शास्त्रों में कहा गया है; क्योंकि गृहस्थ उसी से परमसुख को प्राप्त करते हैं।
इन गाथाओं का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“शुद्धात्मपरिणति को प्राप्त मुनिराजों को शुद्धात्मपरिणति से च्युत करनेवाले उपसर्गादि का समय शुभोपयोगी मुनिराज की अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिकार करने की इच्छारूप प्रवृत्तिका काल है और उससे अतिरिक्त समय काकाल अपनीशद्धात्मपरिणति की प्राप्ति के लिए निवृत्ति का काल है।
शुद्धात्मपरिणति प्राप्त रोगी, गुरु, बाल और वृद्ध श्रमणों की सेवा के निमित्त से ही शभोपयोगी श्रमण काशद्धात्मपरिणति शन्य लोगों से बातचीत करना प्रसिद्ध है, शास्त्रों में निषिद्ध नहीं है; किन्तु अन्य निमित्त से भी प्रसिद्ध हो- ऐसानहीं है।