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________________ ४८६ प्रवचनसार अथ प्रवृत्ते: कालविभागं दर्शयति । अथ लोकसंभाषणप्रवृत्तिं सनिमित्तविभागं दर्शयति। अथैवमुक्तस्य शुभोपयोगस्य गौणमुख्यविभागं दर्शयति - रोगेण वा छुधाए तण्हाए वा समेण वा रूढं। दिट्टा समणं साह पडिवज्जदु आदसत्तीए॥२५२।। वेज्जावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्ढसमणाणं। लोगिगजणसंभासा ण णिदिदा वा सुहोवजुदा ।।२५३।। इस गाथा की टीका में आचार्य जयसेन लिखते हैं कि यह अनुकम्पा ज्ञानियों के स्वरूप स्थिरतारूपभावना को नष्ट न करते हुए संक्लेशपरिणाम को दूर करने के लिए होती है; परन्तु अज्ञानियों के संक्लेशरूपही होती है। ध्यान रहे यह गाथा पंचास्तिकाय संग्रह में १३७वीं गाथा के रूप में है। आचार्य कुन्दकुन्द कृत पंचास्तिकायसंग्रह की आचार्य अमृतचन्द्र कृत समयव्याख्या टीका में इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि - __ "यह अनुकम्पा के स्वरूप का कथन है, तृषादि दुख से पीड़ित किसी प्राणी को देखकर करुणा के कारण उसका प्रतिकार (उसके दुख को दूर करने का उपाय) करने की इच्छा से चित्त में आकुलता होना अज्ञानी की अनुकम्पा है। ज्ञानी की अनुकम्पा तो, निचलीभूमिका में विहरते हुए जन्मार्णव में निमग्न जगत के अवलोकन से मन में किंचित् खेद होना है।" इस गाथा में अनुकम्पा (दया) का स्वरूप स्पष्ट करते हुए उसे दुखरूप बताया गया है। दूसरे प्राणी के दुख को देखकर अपने हृदय में जो दुख होता है और उसे दूर करने का जो भाव होता है; वह दुखरूप भाव ही अनुकम्पा है। तात्पर्य यह है कि यह अनुकम्पा का परिणाम भी दुखरूप परिणाम है, मोहरूप परिणाम है।।३६।। २५१वीं गाथा में प्रवृत्ति के विषय में विभाग की बात आरंभ की थी; अब इन गाथाओं में कालविभागादि की बात स्पष्ट करते हैं। साथ में यह भी बताते हैं कि लौकिकजनों के सम्पर्क का क्या नियम है ? गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है - (हरिगीत ) श्रम रोग भूखरु प्यास से आक्रान्त हैं जो श्रमणजन। उन्हें लखकर शक्ति के अनुसार वैयावृत करो।।२५२।। ग्लान गुरु अर वृद्ध बालक श्रमण सेवा निमित्त से। निंदित नहीं शभभावमय संवाद लौकिकजनों से ||२५३||
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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