________________
४८८
प्रवचनसार
एवमेष शुद्धात्मानुरागयोगिप्रशस्तचर्यारूप उपवर्णितः शुभोपयोगः तदयं शुद्धात्मप्रकाशिकां समस्तविरतिमुपेयुषां कषायकणसद्भावात्प्रवर्तमानः शुद्धात्मवृत्तिविरुद्धरागसंगतत्वाद्गौणः श्रमणानां गृहिणां तु समस्तविरतेरभावेन शुद्धात्मप्रकाशनस्याभावात्कषायसद्भावात्प्रवर्तमानोऽपि, स्फटिकसंपर्केणार्कतेजस इवैधसां, रागसंयोगेन शुद्धात्ममनोऽनुभवात्क्रमतः परमनिर्वाणसौख्यकारणत्वाच्च मुख्यः ।। २५४।।
इसप्रकार शुद्धात्मा की प्रकाशक सर्वविरति को प्राप्त श्रमणों के कषायकण के सद्भाव से शुद्धात्मानुरागयुक्त प्रशस्त चर्यारूप शुभोपयोग गौणरूप प्रवर्तित होता है; क्योंकि वह शुभयोग शुद्धात्मपरिणति से विरुद्ध राग से संबंधित है ।
सर्वविरति के अभाव में मुनि भूमिका के योग्य शुद्धात्मप्रकाशन का अभाव होने से कषाय के सद्भाव के कारण शुभोपयोगी गृहस्थों के मुख्य है ।
जिसप्रकार ईंधन को स्फटिक के संपर्क से सूर्य के तेज का अनुभव होता है; उसीप्रकार गृहस्थ को राग के संयोग से शुद्धात्मा का अनुभव होता है; इसलिए वह शुभोपयोग क्रमशः ( परम्परा से) निर्वाण सुख का कारण है । '
""
इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन लिखते हैं कि “शुभोपयोगी मुनिराज आत्मस्थिरतारूप भावना को नष्ट करनेवाले रोगादि का प्रसंग होने पर वैयावृत्ति करते हैं; शेष समय में अपना अनुष्ठान करते हैं ।
जब कोई शुभोपयोगयुक्त आचार्य, सराग चारित्रलक्षण शुभोपयोगियों की अथवा वीतराग चारित्र लक्षण शुद्धोपयोगियों की वैयावृत्ति करते हैं; उस समय उस वैयावृत्ति के निमित्त से लौकिकजनों से सम्भाषण करते हैं, शेष समय में नहीं - ऐसा भाव है ।
जब कोई मुनिराज अन्य मुनिराजों की वैयावृत्ति करते हैं तो शरीर से निर्दोष वैयावृत्ति करते हैं एवं वचन से धर्मोपदेश रूप वैयावृत्ति करते हैं । औषधि, अन्न, पान आदि गृहस्थों के अधीन हैं । इसकारण वैयावृत्तिरूप धर्म गृहस्थों के मुख्य है, मुनियों के गौण है । '
यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि रोगी, बाल और वृद्ध मुनिराजों के साथ गुरुओं को लेना तो उचित नहीं; क्योंकि रोगी, बाल और वृद्ध मुनिराज तो अशक्त हैं, पर गुरुजन तो अशक्त नहीं हैं। इसप्रकार का विकल्प आचार्य जयसेन को भी रहा होगा; यही कारण है कि उन्होंने विकल्प (दूसरे अर्थ) के रूप में गुरु शब्द का अर्थ स्थूलकाय भी किया है; क्योंकि काय की स्थूलता (मोटापा) भी एक बीमारी है, अशक्ति है।