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चरणानुयोगसूचकचूलिका : शुभोपयोगप्रज्ञापनाधिकार
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अथ शुभोपयोगिश्रमणलक्षणमासूत्रयति । अथ शुभोपयोगिश्रमणानां प्रवृत्तिमुपदर्शयति - अरहंतादिसु भत्ती वच्छलदा पवयणाभिजुत्तेसु । विज्जदि जदि सामण्णे सा सुहजुत्ता भवे चरिया ।। २४६ ।। वंदणणमंसणेहिं अब्भुट्ठाणाणुगमणपडिवत्ती । समणेसु समावणओ ण णिंदिदा रागचरियम्हि । । २४७।। अर्हदादिषु भक्तिर्वत्सलता प्रवचनाभियुक्तेषु । विद्यते यदि श्रामण्ये सा शुभयुक्ता भवेच्चर्या ।। २४६ ।। वन्दननमस्करणाभ्यामभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्ति: ।
श्रमणेषु श्रमापनयो न निन्दिता रागचर्यायाम् ।। २४७ ।।
सकलसंगसंन्यासात्मनि श्रामण्ये सत्यपि कषायलवावेशवशात् स्वयं शुद्धात्मवृत्तिमात्रेणावस्थातुमशक्तस्य, परेषु शुद्धात्मवृत्तिमात्रेणावस्थितेष्वर्हदादिषु, शुद्धात्मवृत्तिमात्रावस्थितिविशेष ध्यान देने योग्य है कि छठवें गुणस्थान तक जिन प्रकृतियों की बंधव्युच्छुत्ति नहीं हुई है; उन प्रकृतियों का ही आस्रव-बंध उन्हें होता है ।। २४५ ।।
विगत गाथा में शुद्धोपयोगी और शुभोपयोगी - दो प्रकार के श्रमणों की चर्चा करने के उपरान्त अब इन २४६ एवं २४७वीं गाथाओं में शुभोपयोगी मुनियों का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ बतलाते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है. ( हरिगीत )
वात्सल्य प्रवचनरतों में अर भक्ति अर्हत् आदि में |
बस यही चर्याश्रमणजन की कही शुभ उपयोग है || २४६ ॥ श्रमणजन के प्रति बंदन नमन एवं अनुगमन । विनय श्रमपरिहार निन्दित नहीं है जिनमार्ग में || २४७ ॥ श्रमणों में पायी जानेवाली अरहंतादि की भक्ति और प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्य भाव युक्त शुभचर्या है।
श्रमणों के प्रति वंदन, नमस्कार सहित अभ्युत्थान ( खड़े होना) और अनुगमनरूप विनीत प्रवृत्ति तथा उनका श्रम दूर करना राग चर्या में निन्दित नहीं है ।
आ. अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं"सकल संग के संन्यास रूप श्रामण्य होने पर भी कषायांश के आवेश वश से केवल शुद्धात्मपरिणतिरूप से रहने में स्वयं अशक्त मुनिराज के अर्थात् केवल शुद्धात्मपरिणतिरूप से