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प्रवचनसार
प्रतिपादकेषु प्रवचनाभियुक्तेषु च भक्त्या वत्सलतया च प्रचलितस्य, तावन्मात्ररागप्रवर्तितपरद्रव्यप्रवृत्तिसंवलितशुद्धात्मवृत्तेः, शुभोपयोगि चारित्रं स्यात् । अतः शुभोपयोगिश्रमणानां शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रत्वलक्षणम् ।।२४६।।
शुभोपयोगिनां हि शुद्धात्मानुरागयोगिचारित्रतया, समधिगतशुद्धात्मवृत्तिषु श्रमणेषुवन्दननमस्करणाभ्युत्थानानुगमनप्रतिपत्तिप्रवृत्तिः शुद्धात्मवृत्तित्राणनिमित्ताश्रमापनयनप्रवृत्तिश्च न दुष्येत्।।२४७।। रहनेवाले अर्हतादिक तथा शुद्धात्मपरिणतिरूप से रहने का प्रतिपादन करनेवाले प्रवचनरत जीवों के प्रति भक्ति तथा वात्सल्य से चंचल चित्त श्रमण के, मात्र उतने राग से प्रवर्तमान परद्रव्यप्रवृत्ति के साथ शुद्धात्मपरिणति मिलित होने के कारण शुभोपयोगी चारित्र है। इससे ऐसा कहा गया है कि शुद्धात्मा का अनुरागयुक्त चारित्र शुभोपयोगीश्रमणों का लक्षण है।
शभोपयोगियों के शद्धात्मा के अनुराग यक्तचारित्र होता है। इसलिए जिन्होंने शद्धात्मपरिणति प्राप्त की है - ऐसे श्रमणों के प्रति जो वंदन-नमस्कार, अभ्युत्थान, अनुगमनरूप विनीत वर्तन की प्रवृत्ति तथा शुद्धात्मपरिणति की रक्षा की निमित्तभूत ऐसी जो श्रम दूर करने
की वैयावृत्तिरूप प्रवृत्ति है; वह शुभोपयोगियों के लिए दूषित नहीं है।' ___ आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं के भाव को प्रस्तुत करते हुए निम्नांकित निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं -
"इससे यह कहा गया है कि स्वयं शुद्धोपयोगरूप लक्षण परम सामायिक में ठहरने के लिए असमर्थ मुनि केशुद्धोपयोग के फलस्वरूप केवलज्ञान परिणत अन्य जीवों के प्रति और उसीप्रकार शुद्धोपयोग के आराधक जीवों के प्रति जो भक्तिभाव है, वह शुभोपयोगी श्रमणों का लक्षण है। शुद्धोपयोग के साधक शुभोपयोग में लिप्त मुनिराजों को रत्नत्रय की आराधना करनेवाले शेष पुरुषों के विषय में इसप्रकार की शुभोपयोगरूप प्रवृत्तियाँ योग्य ही हैं।"
इन गाथाओं में यह बात अत्यन्त स्पष्टरूप से कही गई है कि अनंतानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी और मिथ्यात्व का अभाव कर देनेवाले छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज भावना तो निरन्तर यही रखते हैं कि सदा शुद्धोपयोग में रहें; पर पर्यायगत कमजोरी के कारण जब यह संभव नहीं रहता; तब वे अरहंतादि की भक्ति और प्रवचनरत जीवों के प्रति वात्सल्यभाव से प्रवर्तते हैं। यदि वे शुभोपयोगी मुनिराज सच्चे सन्तों को वंदन, नमस्कार, उनकी विनय और वैयावृत्ति करते हैं तो भी वे निंदनीय नहीं हैं।।२४६-२४७।।
विगत गाथाओं में शुभोपयोगी श्रमणों का स्वरूप और प्रवृत्तियाँ बताने के उपरान्त अब इन गाथाओं में यह बताते हैं कि ऐसी प्रवृत्तियाँ शुभोपयोगियों के ही होती हैं।