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चरणानुयोगसूचकचूलिका : मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार
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वह विविध कर्मों से बंधता है और यदि पदार्थों में मोह-राग-द्वेष नहीं करता है तो वह ज्ञानी श्रमण नियम से विविध कर्मों को खपाता है।
इन गाथाओं के भाव को आ. अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"जो मुनि ज्ञानात्मक आत्मा को मुख्यरूप से नहीं भाता; वह ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यों का तदासाद्य च ज्ञानात्मात्मज्ञानाद्धृष्टः स्वयमज्ञानीभूतो मुह्यति वा, रज्यति वा, द्वेष्टि वा, तथाभूतश्च बध्यत एव, न तु विमुच्यते। अत अनैकाग्र्यस्य न मोक्षमार्गत्वं सिद्ध्येत् ।।२४३।।
यस्तु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रंभावयति, सन ज्ञेयभूतं द्रव्यमन्यदासीदति । तदनासाद्य च ज्ञानात्मात्मज्ञानादभ्रष्टः स्वयमेव ज्ञानीभूतस्तिष्ठन्न मुह्यति, न रज्यति, न द्वेष्टिः, तथाभूत: सन् मुच्यत एव, न तु बध्यते । अत ऐकायस्यैव मोक्षमार्गत्वं सिद्ध्येत् ।।२४४।। आश्रय अवश्य करता है। परद्रव्यों का आश्रय करनेवालावह मुनि ज्ञानात्मक आत्मासे भ्रष्ट अज्ञानी होता हुआ मोह-राग-द्वेष करता है और बंध को प्राप्त होता है; मुक्त नहीं होता। इसलिए अनेकाग्रता कोमोक्षमार्गत्व सिद्ध नहीं होता।
और जो मुनिराज ज्ञानात्मक आत्मा को मुख्यरूप से भाते हैं; वे मुनिराज ज्ञेयभूत अन्य द्रव्यों का आश्रय नहीं करते। परद्रव्यों का आश्रय नहीं करनेवालेवेमुनिराज ज्ञानात्मक आत्मा से भ्रष्ट न होकर ज्ञानी होते हुए, मोह-राग-द्वेष नहीं करते और वे मुक्त ही होते हैं; बंध को प्राप्त नहीं होते। इसलिए एकाग्रता को ही मोक्षमार्गत्व सिद्ध होता है।"
तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य जयसेन इन गाथाओं का भाव स्पष्ट करते हुए जो निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं, उसका भाव इसप्रकार है -
"जो मुनिराज निर्विकार स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा निज में एकाग्र होकर निजात्मा को नहीं जानते हैं; उनका चित्त बाहाविषयों में जाता है, अपने ज्ञानानन्द स्वभाव से च्युत होता है; इसलिए वे मोह-राग-द्वेषरूप परिणमते हैं और अनेकप्रकार के कर्मों से बँधते हैं। इसकारण मुमुक्षुओं को एकाग्ररूप से अपने स्वरूप की भावना करना चाहिए। ___ और जो मुनिराज देखे हुए, सुने हुए, भोगे हुए भोगों की इच्छारूप अपध्यान के त्यागपूर्वक अपने स्वरूप की भावना भाते हैं; उनका मन बाह्यविषयों में नहीं जाता । बाह्य पदार्थों की चिन्ता का अभाव होने से वे निर्विकार चैतन्यचमत्कार से च्युत नहीं होते। रागादि का अभाव होने से उनके विविधप्रकार के विविध कर्म नष्ट हो जाते हैं। इसलिए मुमुक्षुओंको निश्चल मन