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प्रवचनसार
से अपने आत्मा की भावना करना चाहिए।
इसप्रकार वीतरागचारित्रसंबंधी विशेष कथन सुनकर कुछ लोग कहते हैं कि सयोग केवलियों के भी एकदेश चारित्र है, परिपूर्ण चारित्र तो अयोगी के अन्तिम समय में होगा । इसकारण अभी हमारे लिए तो सम्यक्त्वभावना और भेदज्ञान की भावना ही पर्याप्त है, चारित्र तो बाद में होगा ।
इति मोक्षमार्गप्रज्ञापनम् ।।
उनकी शंका का समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि अभेदनय से ध्यान ही चारित्र है और वह ध्यान केवलियों के उपचार से कहा गया है; इसीप्रकार चारित्र भी उपचार से कहा है ।
सम्पूर्ण रागादि विकल्पजालरहित शुद्धात्मानुभूति लक्षण सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक छद्मस्थ का वीतरागचारित्र ही कार्यकारी है; क्योंकि उससे ही केवलज्ञान उत्पन्न होता है; इसलिए उसमें ही प्रयत्न करना चाहिए।'
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प्रश्न - यहाँ कहा गया है कि ध्यान और चारित्र केवली भगवान के उपचार से कहे गये हैं । यह भी कहा गया है कि छद्मस्थों का वीतराग चारित्र ही कार्यकारी है। उक्त सन्दर्भ में प्रश्न यह है कि शुक्लध्यान के अन्तिम दो पाये तो सयोग केवली और अयोग केवलियों के ही होते हैं तथा उनके पूर्ण वीतरागता भी है ही ऐसी स्थिति में यह कैसे माना जा सकता है कि योग केवली और अयोग केवलियों के ध्यान व चारित्र कहना उपचरित कथन है। यह भी कैसे जाना जा सकता है कि सयोग केवलियों के एकदेश चारित्र है; क्योंकि परिपूर्ण चारित्र तो अयोगी के अन्तिम समय में होगा? शास्त्रों में यह भी तो लिखा है कि पंचम गुणस्थान वालों के एकदेश चारित्र अर्थात् एकदेशव्रत और मुनिराजों के सकलचारित्र अर्थात् महाव्रत होते हैं।
उत्तर - अरे भाई, यह सब सापेक्ष कथन हैं। जिनागम में विविध प्रकरणों में विविध अपेक्षाओं से विविधप्रकार के कथन किये जाते हैं। अतः जहाँ जो अपेक्षा हो, उसे सावधानी से समझना चाहिए । यहाँ अपेक्षा यह है कि हम छद्मस्थों को तो वही ध्यान, ध्यान है और वही चारित्र चारित्र है; जो हमें अतीन्द्रियसुख और अतीन्द्रियज्ञान (केवलज्ञान) की प्राप्ति कराये ।
इसप्रकार इन गाथाओं में दो टूक शब्दों में यह कहा गया है कि ज्ञेयभूत परद्रव्यों का आश्रय करनेवाले, ज्ञानात्मक आत्मा से भ्रष्ट अज्ञानी जीव कर्मों से बंधते हैं और ज्ञेयभूत परद्रव्य का आश्रय नहीं करनेवाले, ज्ञानात्मक आत्मा का आश्रय कर कर्मों से मुक्त होते हैं; इसलिए अनेकाग्रता मोक्षमार्ग नहीं है और एकाग्रता मोक्षमार्ग है।
इसप्रकार आचार्य कुन्दकुन्द कृत प्रवचनसार की आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका नामक संस्कृत टीका और डॉ. हुकमचन्द भारिल्ल कृत ज्ञान - ज्ञेयतत्त्वप्रबोधिनी हिन्दी टीका में चरणानुयोगसूचकचूलिका महाधिकार के अंतर्गत मोक्षमार्गप्रज्ञापन अधिकार समाप्त होता है।