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प्रवचनसार
को तथा त्रिलक्षणपने को प्राप्त मुक्तिमार्ग को, ज्ञाता-दृष्टा आत्मा में लीन होकर यह लोक अचलरूप से अवलम्बन करे; जिससे यह लोक उल्लसित चेतना के अतुल विकास को अल्पकाल में प्राप्त कर ले।
अथानैकाग्र्यस्य मोक्षमार्गत्वं विघटयति। अथैकाग्र्यस्य मोक्षमार्गत्वमवधारयन्नुपसंहरति
मुज्झदि वा रजदि वा दुस्सदि वा दव्वमण्णमासेज। जदि समणो अण्णाणी बज्झदि कम्मेहिं विविहेहिं ।।२४३।। अढेसु जोण मुज्झदिण हि रज्जदिणेव दोसमुवयादि। समणो जदि सो णियदंखवेदिकम्माणि विविहाणि ।।२४४।।
मुह्यति वा रज्यति वा द्वेष्टिं वा द्रव्यमन्यदासाद्य । यदि श्रमणोऽज्ञानी बध्यते कर्मभिर्विविधैः ।।२४३।। अर्थेषु यो न मुह्यति न हि रज्यति नैव द्वैषमुपयाति ।
श्रमणो यदि स नियतं क्षपयति कर्माणि विविधानि ।।२४४।। यो हि न खलु ज्ञानात्मानमात्मानमेकमग्रंभावयति, सोऽवश्यं ज्ञेयभूतंद्रव्यमन्यदासीदति ।
इस कलश में यही कहा गया है कि वक्ता के अभिप्रायानुसार एक होकर भी अनेक होता हुआ यह मुक्ति का मार्ग एक और विलक्षणपने को प्राप्त होता है।
आचार्य कहते हैं कि हे जगत के जीवो ! एक मात्र इसका ही अचल रूप से अवलम्बन करो; क्योंकि इससे ही जीव अल्पकाल में पूर्णानन्द को प्राप्त होते हैं।।१६।। ___ आगामी गाथायें इस मोक्षमार्गप्रज्ञापन अधिकार की अन्तिम गाथाएँ हैं। अत: इन गाथाओं में पूरे अधिकार का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए एकाग्रता ही मोक्षमार्ग है और अनेकाग्रता मोक्षमार्ग नहीं है - यह स्पष्ट करते हैं। गाथाओं का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) अज्ञानि परद्रव्याश्रयी हो मुग्ध राग-द्वेषमय | जो श्रमण वह ही बाँधता है विविध विध के कर्म सब ||२४३|| मोहित न हों जो लोक में अर राग-द्वेष नहीं करें।
नियम से वे श्रमण ही क्षय करें विध-विध कर्म सब ||२४४|| यदि श्रमण अन्यद्रव्य का आश्रयपूर्वक अज्ञानी होता हुआ मोह-राग-द्वेष करता है तो