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प्रवचनसार
सोना और मिट्टी में तथा जीवन और मरण में समान भाव रखते हैं, समता भाव रखते हैं। न तो शत्रुओं से द्वेष करते हैं और न भाई-बहिनों से राग ही रखते हैं; न लौकिक अनुकूलता में अपने को सुखी अनुभव करते हैं और न प्रतिकूलता में दुख ही मानते हैं; न प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होते हैं ___ अथेदमेव सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यसंयतत्वमैकाग्र्यलक्षणश्रामण्यापरनाम मोक्षमार्गत्वेन समर्थयति -
दंसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु। एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं ।।२४२।।
दर्शनज्ञानचरित्रेषु त्रिषु युगपत्समुत्थितो यस्तु।
ऐकायगत इति मतः श्रामण्यं तस्य परिपूर्णम् ।।२४२।। ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथाप्रतीतिलक्षणेन सम्यग्दर्शनपर्यायेण, ज्ञेयज्ञातृतत्त्वतथानुभूतिलक्षणेन ज्ञानपर्यायेण, ज्ञेयज्ञातृक्रियान्तरनिवृत्तिसूत्र्यमाणद्रष्टुज्ञातृतत्त्ववृत्तिलक्षणेन चारित्रपर्यायेण च, त्रिभिरपियोगपोन भाव्यभावकभावविज़म्भितातिनिर्भरतरेतरसंवलनबलादङ्गाङ्गिभावेन परिणतस्यात्मनोयदात्मनिष्ठत्वे इति संयतत्वं तत्पानकवदनेकात्मकस्यैकस्यानुभूयमानतायामपि समस्तपरद्रव्यपरावर्तत्वादभिव्यक्तैकाग्यलक्षणश्रामण्यापरनामामोक्षमार्ग एवावगन्तव्यः । तस्य तु सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग इति भेदात्मकत्वात्पर्यायप्रधानेन व्यवहारनयेन ऐकायं
और न निन्दा सुनकर खेद-खिन्न होते हैं। इसीप्रकार सोना और मिट्टी में भी उन्हें कोई अन्तर भासित नहीं होता। अधिक क्या कहें, उन्हें तो जीवन-मरण में भी सर्वप्रकार समभाव रहता है।।२४१ ।।
विगत गाथा में सच्चे संतों का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह बताते हैं कि एकाग्रता लक्षणवालाश्रामण्यरूपमोक्षमार्ग आत्मज्ञान सहित आगमज्ञान, तत्त्वश्रद्धान और संयतपने की एकरूपता में ही है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
(हरिगीत) ज्ञान-दर्शन-चरण में युगपत सदा आरूढ़ हो।
एकाग्रता को प्राप्त यति श्रामण्य से परिपूर्ण हैं।।२४२|| दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन तीनों में जो एक साथ आरूढ है, एकाग्रता को प्राप्त है; उसके परिपूर्ण श्रामण्य है - ऐसा शास्त्रों में कहा है।
आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
"ज्ञेय और ज्ञानतत्त्व की यथार्थ प्रतीतिरूपसम्यग्दर्शन पर्याय, अनुभूतिरूप सम्यग्ज्ञान पर्याय और ज्ञेय और ज्ञाताकी क्रियान्तर से निवृत्ति सेरचित परिणतिरूपचारित्र पर्याय - इन तीनों पर्यायों और आत्मा कीभाव्य-भावकता द्वारा उत्पन्न अतिगाढ इतरेतर मिलन के बल से इन तीनों पर्यायरूप युगपत् अंग-अंगीभाव से परिणत आत्मा के आत्मनिष्ठता होने पर जो संयतत्व होता है; वह संयतत्व ही एकाग्रता लक्षण वाला श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है -