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________________ चरणानुयोगसूचकचूलिका : मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार जिन्हें शत्रु और बन्धुवर्ग, सुख और दुःख, प्रशंसा और निन्दा, सोना और मिट्टी का ढेला तथा जीवन और मरण समान हैं, इन सभी में जिनका समताभाव है; वे श्रमण हैं। ___ संयमः सम्यग्दर्शनज्ञानपुरःसरं चारित्रं, चारित्रं धर्मः, धर्म: साम्यं, साम्यं मोहक्षोभविहीन: आत्मपरिणामः । तत: संयतस्य साम्यं लक्षणम् । तत्र शत्रुबन्धुवर्गयो: सुखदुःखयो: प्रशंसानिन्दयो: लोष्टकाञ्चनयोर्जीवितमरणयोश्च समम् अयं मम परोऽयं स्वः, अयमालादोऽयं परितापः, इदं ममोत्कर्षणमिदमपकर्षणमयं ममाकिश्चित्कर इदमुपकारकमिदं ममात्मधारणमयमत्यन्तविनाश इति मोहाभावात् सर्वत्राप्यनुदितरागद्वेषद्वैतस्य, सततमपि विशुद्धदृष्टिज्ञप्तिस्वभावमात्मानमनुभवतः, शत्रुबन्धुसुखदुःखप्रशंसानिन्दालोष्टकाञ्चनजीवितमरणानि निर्विशेषमेव ज्ञेयत्वेनाक्रम्य ज्ञानात्मन्यात्मन्यचलितवृत्तेर्यत्किलसर्वत: साम्यं तत्सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मकज्ञानयोगपद्यस्य संयतस्य लक्षणमालक्षणीयम्।।२४१॥ आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं “संयम, सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक चारित्र है; चारित्र धर्म है; धर्म साम्य है और मोहक्षोभ रहित आत्मपरिणाम ही साम्य है; इसलिए साम्य संयत का लक्षण है। शत्रु व बन्धुवर्ग में, सुखव दुख में, प्रशंसा व निन्दा में, मिट्टी के ढेले व सोने में और जीवन व मरण के संदर्भ में शत्रु पर है व बन्धुवर्ग स्व हैं, सुख आह्लाद है व दुख परिताप है, प्रशंसा उत्कर्षण (उन्नति) है व निन्दा अपकर्षण (अवनति) है, मिट्टी का ढेला मेरे लिए अकिंचित्कर है व सोना उपकारक है, जीवन स्थायित्व है व मरण विनाशक है- इसप्रकार के मोह के अभाव के कारण जिसे सर्वत्र ही राग-द्वेष का द्वैत प्रगट नहीं होता और जो सतत् विशुद्ध ज्ञानदर्शन-स्वभावी आत्मा का अनुभव करता है - इसप्रकार शत्रु-बन्धु, सुख-दुःख, प्रशंसा-निन्दा, मिट्टी-सोना और जीवन-मरण को निर्विशेषतयाहीज्ञेयरूपजानकर ज्ञानात्मक आत्मा में जिसकी परिणति अचलित हई है; उस पुरुष को सर्वतः साम्य है। यह संयत कालक्षण है। ऐसे संयत पुरुषको आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व कायुगपतपना तथा आत्मज्ञान कायुगपतपना सिद्ध मुनिराजों के समताभाव का निरूपण करते हुए पंडित दौलतरामजी छहढाला की छठवीं ढाल में जो पंक्तियाँ लिखते हैं; वे ऐसी लगती हैं कि मानो उन्होंने इस गाथा का पद्यानुवाद ही कर दिया है। वे पंक्तियाँ इसप्रकार हैं - अरि-मित्र-महल-मसान, कंचन-काँच, निन्दन-थुतिकरन । अर्धावतारन-असिप्रहारन, में सदा समता धरन ।।६।। इसप्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा में यही कहा गया है कि सम्यग्दर्शन वसम्यग्ज्ञानसहित चारित्र धारण करके मुनिराज शत्रु और बन्धु वर्ग में, लौकिक सुख-दुःख में, प्रशंसा-निन्दा में,
SR No.008367
Book TitlePravachansara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages585
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Religion
File Size3 MB
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