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प्रवचनसार
परद्रव्य में भ्रमण में निमित्तभूत कषायसमूह और आत्मा के परस्पर मिलन के कारण अन्यत्र एकरूप हो जाने पर भी स्वभाव भेद के कारण उसे परद्रव्य में निश्चित करके आत्मा में ही मनोव्यापारोभूत्वा चिद्वत्ते: परद्रव्यचङ्क्रमणनिमित्तमत्यन्तमात्मना सममन्योन्यसंवलनादेकीभूतमपि स्वभावभेदात्परत्वेन निश्चित्यात्मनैव कुशलो मल्ल इव सुनिर्भरं निष्पीड्य निष्पीड्य कषायचक्रमक्रमेण जीवं त्याजयति, स खलु सकलपरद्रव्यशून्योऽपि विशुद्धोदृशिज्ञप्तिमात्रस्वभावभूतावस्थापितात्मतत्त्वोपजातनित्यनिश्चलवृत्तितया साक्षात्संयत एव स्यात् । तस्यैव चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यं सिद्ध्यति ।।२४०।।
अथास्य सिद्धागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यसंयतस्य कीदग्लक्षणमित्यनुशास्ति -
समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ।।२४१।।
समशत्रुबन्धुवर्ग: समसुखदुःखः प्रशंसानिन्दासमः।
समलोष्टकाञ्चनः पुनर्जीवितमरणे समः श्रमणः ।।२४१।। कुशल मल्ल की भांति मर्दन करके अक्रम से उसे मार डालता है; वह पुरुष सकल परद्रव्य से शून्य होने पर भी, विशुद्ध दर्शन-ज्ञानमात्र स्वभावरूप आत्मतत्त्व में नित्य-निश्चल परिणति उत्पन्न होने से साक्षात् संयत ही है। ऐसे आत्मा को आगमज्ञान-तत्त्वार्थश्रद्धान-संयतत्व तथा आत्मज्ञान का युगपतपना सिद्ध होता है।"
इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति टीका में समिति, गुप्ति, पंचेन्द्रियजय, जितकषाय को निश्चय-व्यवहार कीसंधिपूर्वकसमझाया है, जो मूलत: पठनीय है।
उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और आत्म-रमणतारूप निश्चयचारित्रपूर्वक पाँच समितियों के पालक, तीन गुप्तियों के धारक, पंचेन्द्रियों के निरोधक
और जितकषायी (कषायों को जीतनेवाले) संत ही संयत हैं और ऐसे संतों के ही दर्शन-ज्ञानचारित्र और आत्मज्ञान का युगपत्पना सिद्ध होता है ।।२४०।।
विगत गाथा में आत्मज्ञान सहित आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयम की एकतारूप मुक्तिमार्ग का स्वरूप समझाया है; अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि उक्त मार्ग में चलनेवाले संत कैसे होते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( हरिगीत ) कांच-कंचन, बन्धु-अरि, सुख-दुःख; प्रशंसा-निन्द में। शद्धोपयोगी श्रमण का समभाव जीवन-मरण में ||२४१।।