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चरणानुयोगसूचकचूलिका : मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार
४६९ करते हुए लिखते हैं कि सब ओर से अपने शुद्धात्मा को ग्रहण कर बहिरंग-अंतरंग परिग्रह की अथागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयोगपद्यात्मज्ञानयोगपद्यं साधयति -
पंचसमिदो तिगुत्तो पंचेंदियसंवुडो जिदकसाओ। दंसणणाणसमग्गो समणो सो संजदो भणिदो ।।२४०।।
पञ्चसमितस्त्रिगुप्त: पंचेन्द्रियसंवृतो जितकषायः।
दर्शनज्ञानसमग्रः श्रमणः स संयतो भणितः ।।२४०।। यः खल्वनेकान्तकेतनागमज्ञानबलेन सकलपदार्थज्ञेयाकारकरम्बितविशदैकज्ञानाकारमात्मानं श्रद्दधानोऽनुभवंश्चात्मन्येव नित्यनिश्चलांवृत्तिमिच्छन् समितिपञ्चकाङ्कशितप्रवृत्तिप्रवर्तितसंयमसाधनीकृतशरीरपात्रः क्रमेण निश्चलनिरुद्धपंचेन्द्रियद्वारतया समुपरतकायवाङ्निवृत्ति त्याग है, अपने निष्क्रिय शुद्ध द्रव्य में ठहर कर, मन, वचन और काय संबंधी व्यापार से निवृत्ति अनारंभ है, विषयों से रहित अपने आत्मा की भावना से उत्पन्न सुख में तृप्त होकर पंचेन्द्रिय संबंधी सुख की इच्छा का त्याग विषय-विराग है; कषायरहित शुद्धात्मा की भावना के बल से क्रोधादि कषायों का त्याग कषाय क्षय है।
इस गाथा में मात्र इतना ही कहा गया है कि त्याग, अनारंभ, विषयों से विरक्ति और कषायों का क्षय ही संयम है।।३५।।
'आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व भी कार्यकारी नहीं हैं' - विगत गाथा में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में आत्मज्ञानसहित आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व के युगपदपने की सार्थकता सिद्ध करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत) तीन गुप्ति पाँच समिति सहित पंचेद्रियजयी।
ज्ञानदर्शनमय श्रमण ही जितकषायी संयमी ।।२४०|| तीन गुप्ति और पाँच समितियों से सहित, पाँच इन्द्रियों का संवरवाला, कषायों को जीतनेवाला और ज्ञान-दर्शन से परिपूर्ण श्रमण संयत कहा गया है।
इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
"जो अनेकान्त निकेतन आगम के बल से, समस्त पदार्थों के ज्ञेयाकारों से मिलित विशद एक ज्ञानाकार आत्मा काश्रद्धान और अनुभव (ज्ञान) करता हुआ आत्मा में ही नित्य निश्चलवृत्ति को चाहता हुआ संयम के साधनरूप शरीर को समितियों से अंकुशित प्रवृत्ति द्वारा और पंचेन्द्रियों के निश्चल निरोधद्वारामन-वचन-काय के व्यापार से विराम को प्राप्त,