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प्रवचनसार
यदि यह सत्य है तो फिर एक करोड़ और एक लाख करोड़से क्या फर्क पड़ता है; क्योंकि दोनों कथनों से हमारे चित्त में सम्यग्दर्शन-ज्ञानपूर्वक किये गये तपसे होनेवाली निर्जरा की महिमा तो आ ही जाती है।
विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि जो आचार्य कुन्दकुन्द प्रवचनसार में शत सहस कोटि (एक लाख करोड़) भवों की बात कहते हैं; वे ही आचार्य कुन्दकुन्द दर्शनपाहुड की पाँचवीं गाथा में एक हजार करोड़ वर्ष की बात लिखते हैं। दर्शनपाहुड़ की उक्त गाथा इसप्रकार है
सम्मत्तविरहिया णं सुठु वि उग्गं तवं चरंता णं । ण लहंति बोहिलाहं अवि वाससहस्सकोडीहिं ।।५।।
(हरिगीत ) यद्यपि करें वे उग्रतप शत-सहस-कोटि वर्ष तक।
पर रत्नत्रय पावें नहीं सम्यक्त्व विरहित साधु सब ||५|| एक हजार करोड़ वर्ष तक उग्र तपरूप आचरण करते हुए भी सम्यक्त्व रहित साधु पुरुष बोधिलाभ को प्राप्त नहीं करते।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि दर्शनपाहुड़ की गाथा में तो यह लिखा है कि एक हजार करोड़ वर्ष तप करते हुए भी सम्यक्त्व से रहित होने के कारण अज्ञानी बोधिलाभ प्राप्त नहीं करते और यहाँ प्रवचनसार में अज्ञानी के एक लाख करोड़ भवों तक तप करके कर्म झड़ने और ज्ञानी के श्वांस मात्र में उतने ही कर्म झड़ने की बात है।
इन दोनों कथनों में महान अन्तर है; क्योंकि एक मनुष्य भव में एक करोड़ वर्ष तो हो सकते हैं; क्योंकि चौथे काल के आरंभ में मनुष्यों की आयु एक करोड़ पूर्व तक हो सकती है। भगवान ऋषभदेव की आयु ८४ लाख पूर्व थी। परन्तु एक लाख करोड़ मनुष्य भव होने में तो अपरिमित काल लग सकता है; क्योंकि दो हजार सागर में तप करने योग्य तो अधिक से अधिक २४ भव ही मिलते हैं। उसके बाद एकेन्द्रिय पर्याय में चले जाने पर अपरिमित काल तक दुबारा त्रसपर्याय में आना संभव नहीं होता । ऐसी स्थिति में आप कल्पना कर सकते हैं कि एक लाख करोड़ मनुष्य भवों के प्राप्त होने में कितना समय लगेगा।
सम्यक्त्वविरहित साधुओं को एक हजार करोड़ वर्ष तक तप करने पर भी बोधिलाभ (रत्नत्रय की प्राप्ति) नहीं हो; इसमें तो कोई अतिशयोक्ति है ही नहीं। यदि यह भी लिख देते