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चरणानुयोगसूचकचूलिका : मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार कि उन्हें अनन्त काल तक बोधि की प्राप्ति नहीं होगी; तो भी कोई बात नहीं थी, क्योंकि सम्यक्त्व से रहित व्यक्तियों को तो बोधिलाभ कभी होनेवाला है ही नहीं।।२३८||
अथात्मज्ञानशून्यस्य सर्वागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानांयौगपद्यमप्यकिंचित्करमित्यनुशास्ति -
परमाणुपमाणं वा मुच्छा देहादिएसु जस्स पुणो। विजदि जदि सो सिद्धिं ण लहदि सव्वागमधरो वि ।।२३९।।
परमाणुप्रमाणं वा मूर्छा देहादिकेषु यस्य पुनः ।
विद्यते यदि स सिद्धिं न लभते सर्वागमधरोऽपि ।।२३९।। यदि करतलामलकीकृतसकलागमसारतया भूतभवद्भावि च स्वोचितपर्यायविशिष्टमशेषद्रव्यजातं जानन्तमात्मानं जानन् श्रद्दधानः संयमयंश्चागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वानां योगपद्येऽपि मनाङ्मोहमलोपलिप्तत्वात् यदा शरीरादिमूर्छापरक्ततया निरुपरागोपयोगपरिणतं कृत्वा ज्ञानात्मानमात्मानं नानुभवति तदातावन्मात्रमोहमलकलङ्ककीलिकाकीलितैः कर्मभिरविमुच्यमानोन सिद्ध्यति।
यद्यपि विगत गाथाओं में आगम ज्ञान, तत्त्वार्थ श्रद्धान और संयतत्व की महिमा का गुणगान किया गया है और उनकी असंदिग्ध उपयोगिता पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है; तथापि अब इस गाथा में यह स्पष्ट करते हैं कि आत्मज्ञानशून्य आगमज्ञान तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व कायगपतपना भी कछ नहीं कर सकता। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
(हरिगीत ) देहादि में अणुमात्र मूर्छा रहे यदि तो नियम से।
वह सर्व आगम धर भले हो सिद्धि वह पाता नहीं।।२३९|| जिसके शरीरादि के प्रति परमाणुमात्र भीमूर्छावर्तती है; भले ही वह सम्पूर्ण आगम का पाठी हो; तथापि सिद्धि को प्राप्त नहीं होता। इस गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“सम्पूर्ण आगम का सार हाथ में रखे आंवले के समान जानकर जो पुरुष भूत-वर्तमानभावी स्वोचित पर्यायों के साथ सम्पूर्ण द्रव्यसमूह को जानने वाले आत्मा को जानता है; उसकाश्रद्धान करता है और संयमित रखता है; उक्त पुरुष के आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व के युगपत्पना होने पर भी, यदि वह किंचित्मात्र भी मोहमल से लिप्त होने से शरीरादि के प्रति मूर्छा से उपरक्त रहने से निर्मल उपयोग में परिणत करके ज्ञानमात्र आत्मा का अनुभव