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चरणानुयोगसूचकचूलिका : मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार
प्रचण्डोपक्रमपच्यमानमपहस्तितरागद्वेषतया दूरनिरस्तसमस्तसुखदुःखादिविकार: पुन - रनारोपितसंतानमुच्छ्वासमात्रेणैव लीलयैव पातयति ।
अत: आगमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्येऽप्यात्मज्ञानमेव मोक्षमार्गसाधकतममनु
मन्तव्यम् ।।२३८ ।
गुप्तियों के सद्भाव से, राग-द्वेष के छोड़ने से समस्त सुख-दुःखादिरूप विकार अ निरस्त होने से; आगामी कर्मबंध न करता हुआ उच्छ्वास मात्र में नष्ट कर देता है ।
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इससे आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व के युगपत् होने पर भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग में साधकतम स्वीकार करना चाहिए ।"
इसप्रकार उक्त सभी ग्रन्थों में 'अनेक प्रतिकूलताओं में भी उग्र तप करते हुए भी अज्ञानी जीव के जितने कर्मों का नाश होता है; उतने कर्मों को ज्ञानी त्रिगुप्ति के बल से श्वांसमात्र में क्षय कर देता है' - यह कहा गया है; किन्तु छहढाला नामक ग्रन्थ में पण्डित दौलतरामजी एक
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लाख करोड़ भवों के स्थान पर मात्र एक करोड़ भव की बात करते हैं ।
उनका कथन मूलतः इसप्रकार है
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कोटि जनम तप तपैं ज्ञान बिन कर्म झरें जे ।
ज्ञानी के छिन माँहि त्रिगुप्ति तैं सहज टरैं ते ।।
आत्मज्ञान के बिना करोड़ों जन्मों तक निरन्तर तप करते रहने पर भी अज्ञानी के जो और जितने कर्म झड़ते हैं; वे और उतने ही कर्मों को ज्ञानीजन त्रिगुप्ति के बल से क्षण भर में नष्ट कर देते हैं।
यदि इस अन्तर को हम यह कहकर टाल दें कि छन्द में स्थान की कमी के कारण ऐसा हो गया होगा; तथापि एक बात यह भी तो है कि अज्ञानी के निर्जरा होती ही कहाँ हैं; जिससे ज्ञानी की निर्जरा की तुलना की जा सके ? वस्तुतः बात यह भी तो है कि बालतपादि के काल में अज्ञानी के जो कर्म झड़ते हैं; उस काल में आगामी कर्मबन्धन होते रहने से उक्त कर्म के झड़ने को मुक्ति के कारणरूप निर्जरा कहना मात्र उपचरित कथन ही है ।
एक बात यह भी विचारणीय है कि तप मुख्यतः मनुष्य गति में होता है और जब यह जीव हजार सागर को सपर्याय प्राप्त करता है; तब उसमें मनुष्य के भव तो मात्र ४८ ही होते हैं। ऐसी स्थिति में एक लाख करोड़ भव होना कैसे संभव होगा ?
वस्तुत: बात यह है कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान रहित तप की निरर्थकता तथा सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान सहित तप की महिमा बताने के लिए ही उक्त कथन किया गया है ।