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मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार
( गाथा २३२ से गाथा २४४ तक )
अथ श्रामण्यापरनाम्नो मोक्षमार्गस्यैकाग्र्यलक्षणस्य प्रज्ञापनं तत्र तन्मूलसाधनभूते प्रथममागम एव व्यापारयति -
एयग्गदो समणो एयग्गं णिच्छिदस्स अत्थेसु । णिच्छित्ती आगमदो आगमचेट्ठा तदो जेट्ठा ।। २३२ ।।
मंगलाचरण
(दोहा)
जिनध्वनि से निज आत्मा जो जाने वे जीव ।
नित आतमरत अनुभवी रत्नत्रयी सदीव ||
आगम और परमागम के अध्ययन-मनन की प्रेरणा देनेवाले इस मोक्षमार्गप्रज्ञापन अधिकार में आरंभ की गाथाओं में आगम के अभ्यास की उपयोगिता पर भरपूर प्रकाश डालकर उसके बाद आनेवाली गाथाओं में यह बताया जायेगा कि परमागम में प्रतिपादित आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाली आत्मानुभूति के बिना अकेले आगम के अभ्यास से कुछ भी होनेवाला नहीं है । यद्यपि यह परम सत्य है कि आगम के अभ्यास बिना वस्तु का सही स्वरूप समझ में आ संभव नहीं है, अतः आगम का अध्ययन करना अत्यन्त आवश्यक है; तथापि मुक्ति तो परमागम के अभ्यास पूर्वक होनेवाले शुद्धोपयोग से ही होगी, आगम-परमागम के अभ्यासरूप शुभभाव से नहीं।
इस मोक्षमार्गप्रज्ञापन अधिकार की पहली गाथा और ग्रन्थाधिराज प्रवचनसार की २३२वीं गाथा की उत्थानिका लिखते हुए आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं कि श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है - ऐसे एकाग्रता लक्षणवाले मोक्षमार्ग के प्रज्ञापन अधिकार में सबसे पहले मोक्षमार्ग के मूल साधनभूत आगम में व्यापार कराते हैं । तात्पर्य यह है कि आगमाभ्यास करने की प्रेरणा देते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है.
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( हरिगीत )
स्वाध्याय से जो जानकर निज अर्थ में एकाग्र हैं ।
• भूतार्थ से वे ही श्रमण स्वाध्याय ही बस श्रेष्ठ है ॥२३२॥
एकाग्रता को प्राप्त पुरुष श्रमण होते हैं और एकाग्रता पदार्थों के निश्चय करनेवाले को ही होती है तथा पदार्थों का निश्चय आगम द्वारा होता है; इसलिए आगम का अभ्यास ही ज्येष्ठ है, श्रेष्ठ है, मुख्य है ।