________________
चरणानुयोगसूचकचूलिका : मोक्षमार्गप्रज्ञापनाधिकार
४५३
ऐकायगत: श्रमण: ऐकाय्यं निश्चितस्य अर्थेषु ।
निश्चितिरागमत आगमचेष्टा ततो ज्येष्ठा ।।२३२।। श्रमणो हि तावदैकाग्र्यगत एव भवति। ऐकायं तु निश्चितार्थस्यैव भवति। अर्थनिश्चयस्त्वागमादेव भवति । तत आगम एव व्यापारः प्रधानतरः, न चान्या गतिरस्ति।
यतोन खल्वागममन्तरेणार्था निश्चेतुं शक्यन्ते, तस्यैव हि त्रिसमयप्रवृत्तत्रिलक्षणसकलपदार्थसार्थयाथात्म्यावगमसुस्थितान्तरङ्गगम्भीरत्वात्।
न चार्थनिश्चयमन्तरेणैकाग्र्यं सिद्ध्येत्, यतोऽनिश्चितार्थस्य कदाचिनिश्चिकीर्षाकुलितचेतसः समन्ततो दोलायमानस्यात्यन्ततरलतया, कदाचिच्चिकीर्षाज्वरपरवशस्य विश्वं स्वयं सिसृक्षोर्विश्वव्यापारपरिणतस्य प्रतिक्षणविजृम्भमाणक्षोभतया, कदाचिबुभुक्षाभावितस्य विश्वं स्वयं भोग्यतयोपादाय रागद्वेषदोषकल्माषितचित्तवृत्तेरिष्टानिष्टविभागेन प्रवर्तितद्वैतस्य प्रतिवस्तुपरिणममानस्यात्यन्तविसंस्ठुलतया, कृतनिश्चयनि:क्रियनिर्भोगं युगपदापीतविश्वमप्यविश्वतयैकं भगवन्तमात्मानपश्यतः सततं वैयग्र्यमेव स्यात्।
उक्त गाथा का भाव तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है -
“एकाग्रताको प्राप्त व्यक्तिहीश्रमण होता है और एकाग्रता पदार्थों का निश्चय करनेवाले व्यक्ति को ही होती है। पदार्थों का निश्चय आगम द्वारा ही होता है; इसलिए आगम का अध्ययन ही प्रधान है; क्योंकि अन्य कोई गति (उपाय) नहीं है।
वस्तुत: बात यह है कि आगम के अभ्यास बिना पदार्थों का निश्चय (निर्णय) नहीं किया जासकता; क्योंकि वह आगम ही त्रिकाल उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूपतीन लक्षण वाले समस्त पदार्थों के सम्यक् ज्ञान द्वारा सुस्थित है, अंतरंग से गंभीर है।
दूसरी बात यह है कि पदार्थों के निश्चय बिना एकाग्रता सिद्ध नहीं होती; क्योंकि जिसे पदार्थों का निश्चय नहीं है; वह कभी तो पदार्थों के निश्चय करने की इच्छा से आन्दोलित होता हुआ चंचल और व्याकुल रहता है, कभी पर में कुछ करने की इच्छारूप ज्वर के परवश होताहआसमस्त पदार्थों को स्वयं सर्जन की इच्छा करताहआ विश्व व्यापाररूप परिणमित होने से प्रतिक्षण क्षुब्ध रहता है और कभी भोगने की इच्छा से भावित होता हुआ विश्व को स्वयंभोगरूप ग्रहण करके राग-द्वेषरूप कलुषित चितवृत्ति के कारण वस्तुओं के इष्ट-अनिष्ट विभाग द्वारा द्वैत प्रवर्तित करता हुआ प्रत्येक वस्तुरूप परिणमित होने से अत्यन्त अस्थिरता को प्राप्त होता है; इसलिए उस अनिश्चयी जीव के कृतनिश्चय, निष्क्रिय और निर्भोग अर्थात् युगपद विश्व को पीजाने पर भी विश्वरूपन होनेवाले उस एक निर्भोग आत्माको नहीं देखने से निरन्तर व्यग्रताहीरहती है, एकाग्रता नहीं होती।