________________
४५१
चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार नहीं करना चाहिए । इसप्रकार वर्तन करना चाहिए कि जिसमें हठ भी न हो और शिथिलता भी न हो। हठ से कठोर आचरण और शिथिलता से कोमल आचरण - दोनों में ही संयम का नाश होता है। अत: न तो उत्सर्ग के हठ से कठोर आचरण करना चाहिए और न अपवाद के छल से अति मृदु आचरण करना चाहिए। सर्वज्ञ भगवान का मार्ग अनेकान्तरूप है; इसलिए अपनी स्थिति का विचार कर जो भी लाभकर लगे, उसप्रकार से आचरण करना चाहिए।
इसके उपरान्त आचार्य अमृतचन्द्रदेव चरणानुयोगसूचक चूलिका नामक महाधिकार में समागत आचरण प्रज्ञापन अधिकार का समापन करते हुए तत्त्वप्रदीपिका टीका में एक छन्द लिखते हैं; जिसका पद्यानुवाद इसप्रकार है -
( शार्दूलविक्रीडित ) इत्येवं चरणं पुराणपुरुषैर्जुष्टं विशिष्टादरैरुत्सर्गादपवादतश्च विचरद्वीह्वीः पृथग्भूमिकाः। आक्रम्य क्रमतो निवृत्तिमतुलां कृत्वा यति: सर्वतश्चित्सामान्यविशेषभासिनि निजद्रव्ये करोतु स्थितिम् ।।१५।।
इत्याचरणप्रज्ञापनं समाप्तम् । (मनहरण कवित्त ) उतसर्ग और अपवाद के विभेद द्वारा।
भिन्न-भिन्न भूमिका में व्याप्त जो चरित्र है।। पुराणपुरुषों के द्वारा सादर है सेवित जो।
उसे प्राप्त कर संत हुए जो पवित्र हैं। चित्सामान्य और चैतन्यविशेष रूप।
जिसका प्रकाश ऐसे निज आत्मद्रव्य में।। क्रमशः पर से पूर्णतः निवृत्ति करके।
सभी ओर से सदा वास करो निज में।।१५।। हे मुनिवरो ! इसप्रकार विशेष आदरपूर्वक पुराण पुरुषों के द्वारा सेवित, उत्सर्ग और अपवाद द्वारा पृथक्-पृथक् अनेक भूमिकाओं में व्याप्त चारित्र को प्राप्त करके, क्रमशः अतुलनिवृत्ति करके, चैतन्यसामान्य और चैतन्यविशेषरूपसे प्रकाशित निजद्रव्य में चारों ओर से स्थिति करो। ___आचरणप्रज्ञापनाधिकार के समापन पर लिखे गये इस छन्द में इस अधिकार की सम्पूर्ण विषयवस्तु का निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि उत्सर्ग और अपवाद की मैत्रीवाले इस मुक्तिमार्ग को पुराणपुरुषों ने विशेष आदरपूर्वक अपनाकर मुक्ति प्राप्त की है; इसलिए हे मुनिजनो! तुम भी उन्हीं के समान जगत से पूर्ण निवृत्ति लेकर सामान्य-विशेषात्मक निजद्रव्य में स्थिति करो, लीन हो जाओ। एकमात्र इसमें ही सार है, शेष सब असार संसार है।