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प्रवचनसार
उन्होंने २२७वींगाथा में कहे गये अनशनस्वभावी तपके साथ शरीर कोसरिंभ से युक्त किया है; इसलिए आहार ग्रहण से होनेवाले योगध्वंस का अभाव होने से उनका आहार युक्ताहार (योगी का आहार) है। इसप्रकार उनके युक्ताहारीपना सिद्ध होता है।"
इस गाथा में मात्र इतनी बात कही गई है कि श्रमण दो प्रकार से युक्ताहारी सिद्ध होता है। पहली बात तो यह है कि उसका ममत्व शरीर पर न होने से वह उचित आहार ही ग्रहण करता है; इसलिए वह युक्ताहारी है। दूसरी बात यह है कि आहार ग्रहण करना आत्मा का स्वभाव ही नहीं है' - ऐसे परिणामरूप योग मुनिराजों के निरंतर वर्तता है; इसलिए वह श्रमण योगी है; उसका आहार युक्ताहार है, योगी का आहार है। तात्पर्य यह है कि वह एषणा समिति पूर्वक आहार लेने से और अनशन स्वभावी होने से युक्ताहारी ही है।।२२८|| अथ युक्ताहारस्वरूपं विस्तरेणोपदिशति -
एक्कं खलु तं भत्तं अप्पडिपुण्णोदरं जहालद्धं । चरणं भिक्खेण दिवा ण रसावेक्खं ण मधुमंसं ।।२२९।।
एकः खलु स भक्त: अप्रतिपूर्णोदरो यथालब्धः।
भैक्षाचरणेन दिवा न रसापेक्षो न मधुमांसः ।।२२९।। एककाल एवाहारो युक्ताहारः, तावतैव श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरस्य धारणत्वात् । अनेककालस्तु शरीरानुरागसेव्यमानत्वेन प्रसह्य हिंसायतनीक्रियमाणोन युक्तः,शरीरानुरागसेवकत्वेन न च युक्तस्य । अप्रतिपूर्णोदर एवाहारो युक्ताहारः तस्यैवाप्रतिहतयोगत्वात् । प्रतिपूर्णोदरस्तु प्रतिहतयोगत्वेन कथंचित् हिंसायतनीभवन् न युक्तः, प्रतिहतयोगत्वेन न च युक्तस्य ।
यथालब्ध एवाहारोयुक्ताहार: तस्यैव विशेषप्रियत्वलक्षणानुरागशून्यत्वात् । अयथालब्धस्तु विशेषप्रियत्वलक्षणानुरागसेव्यमानत्वेन प्रसह्य हिंसायतनीक्रियमाणोन युक्तः, विशेषप्रियत्व
विगत गाथा में मुनिराजों को युक्ताहारी सिद्ध किया था और अब इस गाथा में उसी बात को विशेष स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) इकबार भिक्षाचरण से जैसा मिले मधु-मांस बिन |
अधपेट दिन में लें श्रमण बस यही युक्ताहार है।।२२९।। मुनिराजों का वह युक्ताहार भिक्षाचरण से जैसा उपलब्ध हो जाय वैसा, रस की अपेक्षा से रहित नीरस, मधु-मांस से रहित, दिन में एकबार, अल्पाहार (ऊनोदर-अधपेट) ही होता है।
इस गाथा के भाव को आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं