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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार
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इसकारण वे निश्चयनय से अनाहारी और अविहारी ही हैं; क्योंकि आहार और विहार छोड़ना तो बहिरंग तप है; किन्तु आहार-विहार की तृष्णा रहित होना अंतरंग तप है।
यह तो आप जानते ही हैं कि बहिरंग तप से अंतरंग तप बलवान है || २२७॥ विगत गाथा और उसकी टीका में यह समझाया गया है कि युक्ताहारविहारी साक्षात् अनाहारविहारी ही हैं और अब इस गाथा में उनके युक्ताहारविहारत्व को सिद्ध करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
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( हरिगीत )
तनमात्र ही है परिग्रह ममता नहीं है देह में।
शृंगार बिन शक्ति छुपाये बिना तप में जोड़ते ॥ २२८ ॥ केवलदेहः श्रमणो देहे न ममेति रहितपरिकर्मा ।
आयुक्तवांस्तं तपसा अनिगूह्यात्मनः शक्तिम् ।।२२८ ।।
यतो हि श्रमणः श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणत्वेन केवलदेहमात्रस्योपधेः प्रसह्याप्रतिषेधकत्वात्केवलदेहत्वे सत्यपि देहे 'किं किंचण' इत्यादिप्राक्तन सूत्रद्योतितपरमेश्वराभिप्रायपरिग्रहेण न नाम ममायं ततो नानुग्रहार्हः किंतूपेक्ष्य एवेति परित्यक्तसमस्तसंस्कारत्वाद्रहितपरिकर्मास्यात् । ततस्तन्ममत्वपूर्वकानुचिताहारग्रहणाभावाद्युक्ताहारत्वं सिद्ध्येत् ।
यतश्च समस्तामप्यात्मशक्तिं प्रकटयन्ननन्तरसूत्रोदितेनानशनस्वभावलक्षणेन तपसा तं देहं सर्वारम्भेणाभियुक्तवान् स्यात्, तत आहारग्रहणपरिणामात्मकयोगध्वंसाभावाद्युक्तस्यैवाहारेण च युक्ताहारत्वं सिद्ध्येत । । २२८ ।।
देहमात्र परिग्रह है जिसके, ऐसे श्रमण ने शरीर में भी ममत्व छोड़कर उसके श्रृंगारादि से रहित वर्तते हुए अपने आत्मा की शक्ति को छुपाये बिना शरीर को तप के साथ जोड़ दिया है । अमृतचन्द्राचार्य इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं.
" श्रामण्यपर्याय के सहकारी कारण के रूप में केवल देहमात्र उपधि को श्रमण बलपूर्वक ( हठ से) निषेध नहीं करता; इसलिए केवल देहवाला होने पर भी २२४वीं गाथा में बताये गये परमेश्वर के अभिप्राय को ग्रहण करके 'वस्तुत: यह शरीर मेरा नहीं है, इसलिए अनुग्रह योग्य भी नहीं है, किन्तु उपेक्षा योग्य ही हैं' - इसप्रकार देह के समस्त संस्कार (शृंगार) से रहित होने से परिकर्मरहित है । इसकारण उनके देह के ममत्व पूर्वक अनुचित आहार के ग्रहण का अभाव होने से युक्ताहारीपना सिद्ध होता है ।
दूसरे आत्मशक्ति को किंचित् मात्र भी छुपाये बिना समस्त आत्मशक्ति को प्रगट करके