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गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार
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प्रवचनसार
( हरिगीत )
अरे भिक्षा मुनिवरों की एषणा से रहित हो ।
वे यतीगण ही कहे जाते हैं अनाहारी श्रमण ॥ २२७ ॥
एषणा (आहार की इच्छा) रहित आत्मा को युक्ताहार भी तप ही है और आत्मोपलब्धि के लिए प्रयत्नशील श्रमणों की भिक्षा भी एषणारहित होती है; इसलिए वे श्रमण अनाहारी ही हैं। अमृतचन्द्राचार्य तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं"स्वयं अनशनस्वभावी और एषणादोषशून्य भिक्षुक होने से युक्ताहारी श्रमण साक्षात् अनाहारी ही है । अब इसी बात को विस्तार से समझाते हैं
तथाहि – यस्य सकलकालमेव सकलपुद्गलाहरणशून्यमात्मानमवबुद्ध्यमानस्य सकलाशनतृष्णाशून्यत्वात्स्वयमनशन एव स्वभाव:, तदेव तस्यानशनं नाम तपोऽन्तरङ्गस्य बलीयस्त्वात्, इति कृत्वा ये तं स्वयमनशनस्वभावं भावयन्ति श्रमणाः तत्प्रतिषिद्धयेचैषणादोषशून्यमन्यद्वैक्षं चरन्ति, ते किलाहरन्तोऽप्यनाहरन्त एव युक्ताहारत्वेन स्वभावपरभावप्रत्ययबन्धाभावात्साक्षादनाहारा एव भवन्ति । एवं स्वयमविहारस्वभावत्वात्समितिशुद्धविहारत्वाच्च युक्तिविहार: साक्षादविहार एव स्यात् इत्यनुक्तमपि गम्येतेति ।। २२७।।
अथ कुतो युक्ताहारत्वं सिद्ध्यतीत्युपदिशति -
केवलदेहो समणो देहे ण ममत्ति रहिदपरिकम्मो । आत्तो तं तवसा अणिगूहिय अप्पणो सत्तिं । । २२८ ।।
समस्त पुद्गलाहार से सदा ही शून्यस्वभावी आत्मा को जानते हुए समस्त अशन की तृष्णा से रहित स्वयं अनशन स्वभावी श्रमण के अनशन नामक तप है; क्योंकि अंतरंग की विशेष बलवत्ता है - ऐसा समझकर जो श्रमण आत्मा को अनशनस्वभावी अनुभव करते हैं और अपनी सिद्धि के लिए एषणाशून्य भिक्षा आचरते हैं; वे आहार करते हुए भी मानो साक्षात् अनाहारी हैं; क्योंकि युक्ताहारविहारी होने के कारण उनके स्वभाव- परभाव निमित्तिक बंध नहीं होता । जिसप्रकार युक्ताहारी साक्षात् अनाहारी है; उसीप्रकार स्वयं अविहारस्वभाववाला और समितिशुद्ध विहारवाला होने से युक्तविहारी साक्षात् अविहारी ही है - ऐसा गाथा में नहीं कहे जाने पर भी समझना चाहिए ।"
इसप्रकार इस गाथा और उसकी टीका में यही बताया गया है कि यद्यपि मुनिराज ३२ अन्तराय और ४६ दोष टालकर एषणा समिति पूर्वक आहार करते हैं और ईर्या समिति पूर्वक विहार करते हैं; तथापि उनका अपनापन अनशनस्वभावी और अविहार स्वभावी आत्मा में है;