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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार विषयों से, निद्रा से और स्नेह में उपयुक्त होता हुआ श्रमण प्रमत्त होता है।
उक्त कथन से ऐसा लगता है कि प्रमत्तविरत नामक छठवें गुणस्थानवर्ती मुनिराज क्रोधादि कषायों से युक्त, चार विकथाओं और पाँच इन्द्रियों के विषयों में रत, स्नेहासक्त और निद्रालु होते होंगे, पर बात ऐसी नहीं है; क्योंकि उनके मिथ्यात्व और अनन्तानुबंधी आदि तीन कषाय चौकड़ी का अभाव होता है; मात्र संज्वलन संबंधी कषायों का तीव्र उदय होता है। संज्वलन कषाय के उदयानुसार ही अन्य प्रमाद होते हैं। अत: यह नहीं समझना चाहिए कि वे गंदीगंदी विकथाओं में उलझे रहते होगे या सोते रहते होगे।
जो यहाँ उन्हें प्रमादी कहा है, वह तो आत्मध्यानरूप अप्रमत्तदशा अर्थात् शुद्धोपयोगरूप दशा नहीं होने के कारण कहा है; तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्धपरिणति तो उनके अथ युक्ताहारविहारः साक्षादनाहारविहार एवेत्युपदिशति -
जस्स अणेसणमप्पा तं पि तवो तप्पडिच्छगा समणा। अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ।।२२७॥
यस्यानेषण आत्मा तदपि तप: तत्प्रत्येषका: श्रमणाः।
अन्यदभैक्षमनेषणमथ ते श्रमणा अनाहाराः ।।२२७।। स्वयमनशनस्वभावत्वादेषणादोषशून्यभक्ष्यत्वाच्च युक्ताहारः, साक्षादनाहार एव स्यात् । निरन्तर विद्यमान ही है। उनका प्रमाद विगत गाथाओं में कही गई उपधि या उपकरणरूप ही होता है; जिसमें निर्दोष आहार-विहार के विकल्प, शास्त्रपठन, गुरुवाणी श्रवण और गुरुओं के प्रति विनय व्यवहार ही आता है।
यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि फिर यहाँ प्रमत्तदशा में पंचेन्द्रियों के विषयों में रत आदि भेदों की चर्चा क्यों की गई है ?
इसका सीधा-सच्चा उत्तर यह है कि प्रमत्तदशा अकेले छटवें गुणस्थान में ही नहीं होती, अपितु पहले से छटवें गुणस्थान तक होती है; आगे के सभी गुणस्थान अप्रमत्त दशा के हैं। शुद्धोपयोगरूप सभी गुणस्थान अप्रमत्त गुणस्थान हैं और शुभाशुभभाववाले सभी गुणस्थान प्रमत्त कहलाते हैं। उक्त पन्द्रह प्रकार का प्रमाद पहले से छटवें गुणस्थान तक अपनी-अपनी भूमिकानुसार पाया जाता है। छटवें गुणस्थान में होनेवाली प्रमत्तदशा तो पीछी-कमण्डलु, शास्त्र तथा अध्ययन-अध्यापन और विनय व्यवहार तक ही सीमित है।|३१||
२२६वीं गाथा में मुनिराजों को युक्ताहारविहारी बताया गया था; अब इस गाथा में यह बताते हैं कि युक्ताहारविहारीएक प्रकार से साक्षात अनाहारविहारी ही हैं।