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प्रवचनसार
प्राप्त करने के लिए मुनिराज शरीर कोयुक्ताहार देते हैं और उसके माध्यम से युक्त विहार करते हैं; इसलिए वे युक्ताहारविहारी होते हैं। ___ यहाँ ऐसा तात्पर्य है कि कषायरहित होने से मुनिराजों के वर्तमान मनुष्य शरीर के अनुराग से अथवा भावी देव शरीर के अनुराग से आहार-विहार में अयुक्त प्रवृत्ति नहीं होती; किन्तु शुद्धात्मतत्त्व की साधक श्रामण्य पर्याय के पालन के लिए वे युक्ताहारविहारी ही होते हैं।"
यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका का ही अनुसरण करते हैं; तथापि भावार्थ में दीपक के उदाहरण को इसप्रकार सांगोपांग घटित करते हैं -
“इस लोक और परलोक से निरपेक्ष व कषाय रहित होने से वे मुनिराज शरीररूपी दीपक में ग्रास (कौर) रूपी तेल देकर परमार्थ पदार्थरूप घट-पट को प्रकाशित करते हैं; देखते हैं, जानते हैं। ऐसे मुनिराज ही युक्ताहारविहारी हैं, अन्य नहीं।"
मुनिराजों को न तो कोई वर्तमान भव के भोगों की लिप्सा है और न आगामी भवों में प्राप्त होनेवाले भोगों की आकांक्षा है। यही कारण है कि उनके विहार का प्रयोजन भी आत्मार्थ होता है और उनका आहार भी आत्मसाधना की अनुकूलता के लिए ही होता है। वे आहार के प्रति भी अत्यन्त निस्पृह रहते हैं और विहार के लिए भी सभी प्रकार की प्रतिबद्धताओं से मुक्त रहते हैं।
तात्पर्य यह है कि वे मुनिराज न तो उदिष्ट आहार लेते हैं और न विहार करने के लिए किसी को वचन देते हैं। वे ३२ अन्तराय और ४६ दोष टालकर निर्दोष आहार लेते हैं और उनका विहार भी सभीप्रकार की लौकिक प्रतिबद्धताओं से मुक्त रहता है।।२२६ ।।
आचार्य जयसेनकृत तात्पर्यवृत्ति टीका में इस गाथा के उपरान्त एक गाथा आती है, जो आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका में प्राप्त नहीं होती और जिसमें पन्द्रह प्रकार के प्रमादों को गिनाया गया है। गाथा मूलत: इसप्रकार है -
कोहादिएहिं चउहिं वि विकहाहि तहिंदियाणमत्थेहिं। समणो हवदि पमत्तो उवजुत्तो णेहणिद्दाहिं ।।३१।।
(हरिगीत) चार विकथा कषायें अर इन्द्रियों के विषय में|
रत श्रमण निद्रा-नेह में परमत्त होता है श्रमण ||३१|| चार प्रकार की क्रोधादि कषायों से, चार प्रकार की विकथाओं से, पाँच इन्द्रियों के