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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार
के रूप में ही स्वीकार किया गया है और उन्हें अपवादमार्ग में ही स्वीकार किया गया है, उत्सर्गमार्ग में नहीं ||२२५ ||
विगत गाथा में शरीर को उपधि कहा था, उपकरण कहा था; अब इस गाथा में उक्त अनिषिद्ध उपधि / शरीर के पालन की विधि पर प्रकाश डालते हैं ।
गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार
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( हरिगीत )
इहलोक से निरपेक्ष यति परलोक से प्रतिबद्ध ना ।
अर कषायों से रहित युक्ताहार और विहार में ||२२६॥ इहलोकनिरापेक्ष: अप्रतिबद्धः परस्मिन् लोके । युक्ताहारविहारो रहितकषायो भवेत् श्रमणः ।। २२६।।
अनादिनिधनैकरूपशुद्धात्मतत्त्वपरिणतत्वादखिलकर्मपुद्गलविपाकात्यन्तविविक्तस्वभा
वत्वेन रहितकषायात्वात्तदात्वमनुष्यत्वेऽपि समस्तमनुष्यव्यवहारबहिर्भूतत्वेनेहलोकनिरापेक्षत्वात्तथाभविष्यदमर्त्यादिभावानुभूतितृष्णाशून्यत्वेन परलोकाप्रतिबद्धत्वाच्च, परिच्छेद्यार्थीपलम्भप्रसिद्ध्यर्थप्रदीपपूरणोत्सर्पणस्थानीयाभ्यां शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भप्रसिद्ध्यर्थतच्छरीरसंभोजनसंचलनाभ्यां युक्ताहारविहारो हि स्यात् श्रमणः ।
इदमत्र तात्पर्यम् - यतो हि रहितकषायः ततो न तच्छरीरानुरागेण दिव्यशरीरानुरागेण वाहारविहारयोरयुक्त्या प्रवर्तेत । शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसाधकश्रामण्यपर्यायपालनायैव केवलं युक्ताहारविहार: स्यात् ।। २२६ ।।
कषायरहित श्रमण इस लोक से निरपेक्ष और परलोक से अप्रतिबद्ध होने से विहारी होते हैं।
युक्ताहार
इस गाथा के भाव को अमृतचन्द्राचार्य तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
'अनादिनिधन एकरूप शुद्धात्मतत्त्व में परिणत होने से मुनिराज समस्त कर्मपुद्गलों के विपाक से अत्यन्त भिन्न स्वभाव के द्वारा कषायरहित होने से, वर्तमान काल में मनुष्यत्व के होते हुए भी स्वयं समस्त मनुष्य व्यवहार से उदासीन होने के कारण इस लोक के प्रति निरपेक्ष (निस्पृह) हैं तथा भविष्य में होनेवाले देवादि भवों के अनुभव की तृष्णा से शून्य होने के कारण परलोक के प्रति अप्रतिबद्ध हैं; इसलिए जिसप्रकार घटपटादि ज्ञेयपदार्थों के जानने के लिए दीपक में तेल डाला जाता है और बाती को सुधारा जाता है; उसीप्रकार शुद्धात्मा को