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प्रवचनसार
वे उपकरण इसप्रकार हैं - १. सभी प्रकार की कृत्रिमता से रहित, सहजरूपसे अपेक्षित यथाजातरूपपने के कारण बहिरंगलिंगभूत काय पुद्गल, २. श्रवण योग्य तत्कालबोधक गुरु द्वारा कहे जाने पर आत्मतत्त्व द्योतक उपदेशरूपवचन पुद्गल, ३. अध्ययन किये जाने वाले नित्वबोधक,अनादि-निधन आत्मतत्त्वको प्रकाशित करने में समर्थश्रुतज्ञान के साधनभूत शब्दात्मक सूत्र पुद्गल और ४. शुद्धात्मतत्त्व को व्यक्त करनेवाली दार्शनिक पर्यायोंरूप परिणमित पुरुष के प्रति विनम्रता का अभिप्राय प्रवर्तित करनेवाले चित्त पुद्गल - ये चार अपवादमार्ग की उपकरणरूप उपधि हैं। इनका अपवाद मार्ग में निषेध नहीं किया गया है।
तात्पर्य यह है कि काय की भांति मन और वचन भी वस्तुधर्म नहीं हैं।" अथाप्रतिषिद्धशरीरमात्रोपधिपालनविधानमुपदिशति -
इहलोगणिरावेक्खो अप्पडिबद्धो परम्हि लोयम्हि ।
जुत्ताहारविहारो रहिदकसाओ हवे समणो ।।२२६॥ उक्त सम्पूर्ण कथन का सार यह है कि जब मुनिराजों के आत्महित के निमित्तरूप शरीर, गुरुओं के वचन, जिनवाणी पठन और गुरुओं की विनय को भी उपकरण कहकर परिग्रह ही कहा है; तब अन्य परिग्रह की तो बात ही क्या करना ?
दूसरी विशेष बात यह है कि यहाँ जिनवाणी को नित्यबोधक और गुरुवचनों को तत्कालबोधक कहा है। शास्त्र तो हमें सहजभाव से चौबीसों घंटे सर्वत्र उपलब्ध हैं; हम जब चाहें, तब उन्हें पढ़ सकते हैं; पर गुरु के वचन सदा और सर्वत्र उपलब्ध नहीं रहते; वे तो हमें सुनिश्चित क्षेत्र-काल में ही प्राप्त होते हैं; इसलिए शास्त्रों को नित्यबोधक और गुरुवचनों को तत्कालबोधक कहा है।
तीसरी बात यह है कि कोई बात समझ में न आवे तो गुरुजी से पूछ सकते हैं; पर शास्त्रों के साथ यह सुविधा उपलब्ध नहीं है। क्योंकि उनसे हमारी ओर इकतरफा मार्ग (वनवे ट्रैफिक) है। उनकी बात हमें तो उपलब्ध है, पर हम अपनी बात उन तक नहीं पहुँचा सकते।
चौथी बात यह भी ध्यान देने योग्य है कि शास्त्रों के माध्यम से हम हजारों वर्ष पुराने सन्तों के वचनों का भी ज्ञान कर सकते हैं; पर गुरु वचनों में तो वर्तमान गुरुओं पर ही निर्भर रहना होता है।
इसप्रकार हम देखते हैं कि शास्त्रों का अध्ययन और गुरुओं के प्रवचन – दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं, विरोधी नहीं। दोनों की उपयोगिता भी असंदिग्ध है।
यद्यपि इन उपकरणों की उपयोगिता असंदिग्ध है; तथापि यहाँ उन्हें उपधि (परिग्रह)