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प्रवचनसार
इस गाथा के कथन का अभिप्राय मात्र इतना ही है कि परद्रव्यों में आसक्त साधुओं में मूर्छा, आरंभ और असंयम होता ही है। अत: वे आत्मा की साधना कैसे कर सकते हैं? ||२२१||
विगत गाथाओं में उत्सर्ग मार्ग की चर्चा करने के उपरान्त अब यहाँ किसी के कहीं कभी किसीप्रकार कोई उपधि अनिषिद्ध भी है। ऐसे अपवाद मार्ग का उपदेश करते हैं।
छेदो येन न विद्यते ग्रहणविसर्गेषु सेवमानस्य ।
श्रमणस्तेनेह वर्ततां कालं क्षेत्रं विज्ञाय ।।२२२।। आत्मद्रव्यस्य द्वितीयपुद्गलद्रव्याभावात्सर्व एवोपधिः प्रतिषिद्ध इत्युत्सर्गः। अयं तु विशिष्टकालक्षेत्रवशात्कश्चिदप्रतिषिद्ध इत्यपवादः।।
यदा हिश्रमणः सर्वोपधिप्रतिषेधमास्थाय परममुपेक्षासंयमं प्रतिपत्तुकामोऽपि विशिष्टकालक्षेत्रवशावसनशक्तिर्न प्रतिपत्तुंक्षमते, तदापकृष्य संयमं प्रतिपद्यमानस्तबहिरङ्गसाधनमात्रमुपधिमातिष्ठते । स तु तथास्थीयमानोन खलूपधित्वाच्छेदः, प्रत्युत छेदप्रतिषेध एव ।
यः किलाशुद्धोपयोगाविनाभावीस छेदः। अयं तु श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणशरीरवृत्तिहेतुभूताहारनिर्हारादिग्रहणविसर्जनविषयच्छेदप्रतिषेधार्थमुपादीयमानःसर्वथा शुद्धोपयोगाविनाभूतत्वाच्छेदप्रतिषेध एव स्यात् ।।२२२।। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है -
(हरिगीत ) छेद न हो जिसतरह आहार लेवे उसतरह।
हो विसर्जन नीहार का भी क्षेत्र काल विचार कर||२२२|| आहार-नीहारादिक के ग्रहण-विसर्जन में जिस उपधि का सेवन होता है, उससे सेवन करनेवाले को छेद नहीं होता; इसलिए हे श्रमणो! उक्त उपधियुक्त क्षेत्र-काल को जानकर इस लोक में भले प्रवर्तो अर्थात् प्रवर्तन करो तो कोई हानि नहीं।
आ. अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
“आत्मद्रव्य के द्वितीय, पुद्गल का अभाव होने से समस्त ही उपधि निषिद्ध है - यह उत्सर्गमार्ग (सामान्य नियम) है और विशिष्ट काल-क्षेत्र के वश कोउपधि अनिषिद्ध है - यह अपवादमार्ग है।
जब कोई श्रमण सर्व उपधि के निषेध का आश्रय लेकर परमोपेक्षा संयम को प्राप्त करने का इच्छुक होने पर भी विशिष्ट काल-क्षेत्र के वश हीन शक्तिवाला होने से उसे प्राप्त करने में असमर्थ होता है; तब उसमें अपकर्षण (अपवाद) करके अनुत्कृष्ट संयम प्राप्त करता हुआ