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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार
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उसकी बहिरंग साधन मात्र उपधि का आश्रय करता है। इसप्रकार वह उपधि उपधिपने के कारण छेदरूप नहीं है; अपितु छेद के निषेधरूप ही है।
जो उपधि अशुद्धोपयोग बिना नहीं होती, वह छेद है; किन्तु यह तो श्रामण्यपर्याय की सहकारीकारणभूत शरीर की वृत्ति के हेतुभूत आहार-नीहारादि के ग्रहण-विसर्जन संबंधी छेद के निषेधार्थ ग्रहण की जाने से सर्वथा शुद्धोपयोग सहित है; इसलिए छेद के निषेधरूपही है।" अथाप्रतिषिद्धोपधिस्वरूपमुपदिशति -
अप्पडिकुटुं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं । मुच्छादिजणणरहिदंगेण्हदु समणो जदि वि अप्पं ।।२२३।।
अप्रतिकुष्टमुपधिमप्रार्थनीयमसंयतजनैः ।।
मूर्छादिजननरहितं गृह्णातु श्रमणो यद्यप्यल्पम् ।।२२३।। यः किलोपधिः सर्वथा बन्धासाधकत्वादप्रतिक्रुष्टः संयमादन्यत्रानुचितत्वादसंयतजनाप्रार्थनीयो, रागादिपरिणाममन्तरेण धार्यमाणत्वान्मूर्छादिजननरहितश्च भवति; स खल्वप्रतिषिद्धः। अतो यथोदितस्वरूप एवोपधिरूपादेयो, न पुनरल्पोऽपि यथोदितविपर्यस्तस्वरूपः।।२२३॥
छटवें-सातवें गुणस्थानों में निरन्तर झूलनेवाले मुनिराज जब छटवें गुणस्थान में होते हैं, तब अपवादमार्गी हैं और जब सातवें या उससे ऊपर के गुणस्थानों में होते हैं; तब उत्सर्गमार्गी हैं। उत्सर्गमार्ग में तो किसीप्रकार के परिग्रह (उपधि) का होना संभव ही नहीं है; किन्तु जब वे अपवादमार्ग में होते हैं तो दया का उपकरण पीछी, शुद्धि का उपकरण कमण्डलु और ज्ञान का उपकरण गुरुवचन (शास्त्र) उनके पास पाये जाते हैं; पर उनसे भी उनका एकत्व-ममत्व नहीं होता । यद्यपि उनके छटवें गुणस्थान में उपयोगरूप आत्मानुभूति नहीं है; तथापि मिथ्यात्व और तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्धपरिणति अवश्य है, उसे ही यहाँ शुद्धोपयोग कहा है। इसकारण उनके पास पीछी, कमण्डलु और शास्त्र होने पर भी उनका मुनित्व खण्डित नहीं होता है।।२२२||
विगत गाथा में अनिषिद्ध उपधि की चर्चा के उपरान्त अब इस गाथा में उसी अनिषिद्ध उपधि का स्वरूप स्पष्ट करते हैं। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है
(हरिगीत ) मूळदि उत्पादन रहित चाहे जिसे न असंयमी ।
अत्यल्प हो ऐसी उपधि ही अनिंदित अनिषिद्ध है।।२२३|| हे श्रमणो! अनिदित, असंयत जनोंसे अप्रार्थनीय और जोमूर्छापैदान करे-ऐसीअल्प उपधि को ग्रहण करो।