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चरणानुयोगसूचकचूलिका : आचरणप्रज्ञापनाधिकार
४२५ २२०वीं गाथा में यह कहा गया है कि उपधि (परिग्रह) का निषेध अंतरंग छेद का ही निषेध है और अब इस २२१वीं गाथा में 'उपधि एकान्तिक अंतरंग छेद है' - इस बात को विस्तार से समझाया जा रहा है। गाथा का पद्यानुवाद इसप्रकार है - अथैकान्तिकान्तरंगच्छेदत्वमुपधेर्विस्तरेणोपदिशति -
किध तम्हि णत्थि मुच्छा आरंभो वा असंजमो तस्स। तध परदव्वम्मि रदो कधमप्पाणं पसाधयदि।।२२१।।
कथं तस्मिन्नास्ति मूर्छा आरम्भो वा असंयमस्तस्य ।
तथा परद्रव्ये रतः कथमात्मानं प्रसाधयति ।।२२१।। उपधिसद्भावे हि ममत्वपरिणामलक्षणायामूर्छायास्तद्विषयकर्मप्रक्रमपरिणामलक्षणस्यारम्भस्य शुद्धात्मरूपहिंसनपरिणामलक्षणस्यासंयमस्य वावश्यंभावित्वात्तथोपधिद्वितीयस्य परद्रव्यरतत्वेन शुद्धात्मद्रव्यप्रसाधकत्वाभावाच्च ऐकान्तिकान्तरंगच्छेदत्वमुपधेरवधार्यत एव । इदमत्र तात्पर्यमेवंविधत्वमुपधेरवधार्य स सर्वथा संन्यस्तव्यः ।।२२१।।
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कस्यचित्क्वचित्कदाचित्कथंचित्कश्चिदुपधिरप्रतिषिद्धोऽप्यस्तीत्यपवादमुपदिशति
छेदो जेण ण बिजदि गहणविसग्गेसु सेवमाणस्स। समणो तेणिह वट्टदु कालं खेत्तं वियाणित्ता ।।२२२।।
( हरिगीत ) उपधि के सद्भाव में आरंभ मूर्छा असंयम |
हो फिर कहो परद्रव्यरत निज आत्म साधे किसतरह।।२२१|| उपधि (परिग्रह) के सद्भाव में मुनिराजों के मूर्छा, आरंभ या असंयम न हो- यह कैसे हो सकता है तथा परद्रव्यरत साधु आत्मा को कैसे साध सकता है?
आचार्य अमृतचंद्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं
“उपधि के सद्भाव में ममत्वपरिणामरूप मूर्छा, परिग्रह संबंधी कार्य से युक्त होनेरूप आरंभ अथवाशुद्धात्मस्वरूपकाघातक असंयम होता ही है।
आत्मा से भिन्न परद्रव्यरूप परिग्रह में लीनता होने के कारण शुद्धात्मद्रव्य की साधकता का अभाव होता है। इसकारण उपधि (परिग्रह) के एकान्ततः अंतरंग छेदपना निश्चित होता है। तात्पर्य यह है कि उपधि ऐसी है' - ऐसा निश्चित करके उसे सर्वथा छोड़ देना चाहिए।"