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और उसकी संभाल का भाव रागादिभावरूप ही है। तात्पर्य यह है कि बहिरंग छेद अंतरंग छेद का आयतन है; अत: अंतरंग छेद के त्याग के लिए बहिरंग छेदरूप परिग्रह का पूर्णत: त्याग आवश्यक ही नहीं, अपितु अनिवार्य है || २२० ॥
इस गाथा के बाद आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति टीका में उपर्युक्त भाव की पोषक ३ गाथाएँ प्राप्त होती हैं; जो आचार्य अमृतचन्द्रकृत तत्त्वप्रदीपिका टीका में प्राप्त नहीं होती। वे गाथाएँ मूलतः इसप्रकार हैं
गेहदि व चेलखंडं भायणमत्थि त्ति भणिदमिह सुत्ते । जदि सो चत्तालंबो हवदि कहं वा अणारंभो ।। १७ ।। वत्थक्खंडं दुद्दियभायणमण्णं ण गेहदि णियदं । विज्जदि पाणारंभो विक्खेवो तस्स चित्तम्मि ।। १८ ।। ves विधुणइ धोवइ सोसेइ जदं तु आदवे खित्ता । पत्तं व चेलखंडं बिभेदि परदो य पालयदि । । १९ ।। हरिगीत )
वस्त्र बर्तन यति रखें यदि यह किसी के सूत्र में ।
ही कहा हो तो बताओ यति निरारंभी किसतरह ||१७||
रे वस्त्र बर्तन आदि को जो ग्रहण करता है श्रमण |
नित चित्त में विक्षेप प्राणारंभ नित उसके रहे ||१८||
यदि वस्त्र वर्तन ग्रहे धोवे सुखावे रक्षा करे ।
खो न जावे डर सतावे सतत ही उस श्रमण को ||१९||
प्रवचनसार
'साधु वस्त्रों को ग्रहण करता है और उसके पास बर्तन भी होते हैं" - यदि किसी आगम में ऐसा कहा गया है तो सोचने की बात यह है कि वस्त्र और बर्तन रखनेवाला साधु निरावलम्बी और अनारंभी भी कैसे हो सकता है ?
वस्त्र के टुकड़े, दूध के बर्तन तथा अन्य वस्तुओं को यदि वह ग्रहण करता है तो उसके जीवों का घात और चित्त में विक्षेप बना रहता है । वह बर्तन व वस्त्रों को ग्रहण करता है, धूल साफ करता है, धोता है और सावधानीपूर्वक धूप में सुखाता है, इनकी रक्षा करता है और दूसरों से डरता है । । १७ - १८-१९।।